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________________ कायोत्सर्गदृढासन निर्विकारसाम्य-गुरुसेवादि शुभकायेन । सत्यहितमितभाषणधर्मोपदेशनपंचनमस्कारजपन सिद्धांतपठनादिशुभवचनेन । तत्वा जिनेन्द्रगुर्वादिस्तवनकरण वलंबनप्रशस्तध्यानकरण- जिनेंदादि-गुणस्मरणसंसारदेहभोग वैराग्यभावना - मोक्षोपाय - चिंतनादि शुभमनसा च शुभप्रकृतिप्रदेशबंधौ देही स्वीकुरुते । प्राणिघातवध - बंधनानायतनगमनस्वेच्छाचरणविकारकारणाद्यशुभकायेन । अनृतपरुषकटु-कर्मादि-भाषणपरनिंदन मिथ्योपदेशनधर्मविरुद्ध- जल्पनविकथा-करणाद्यशुभवचनेन संबंध को प्राप्त होते हैं, उसे प्रदेश बंध कहते हैं । कर्म योग्य पुद्गल परमाणु, कहीं बाहर से नहीं आते अपितु जीव के ग्रहीत शरीर में व्याप्त आकाश प्रदेशों में रहते हैं और वे ही कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं । शुभ काय से अर्थात् कायोत्सर्ग - दृढ़ासन - निर्विकार - साम्य मुद्रा वाले गुरु आदि की सेवा, सत्य, हित, मित, प्रियभाषण, धर्मोपदेश, पंच नमस्कारजाप, जिनेन्द्र गुरु आदि का स्तवन (स्तुति) करना, सिद्धांत शास्त्रों का पढ़ना आदि शुभ वचन से तथा तत्त्व का अवलंबन, प्रशस्त ध्यान, जिनेन्द्रादि पंचपरमेष्ठियों के गुणों का स्मरण, संसार, शरीर भोगों से वैराग्य की भावना, मोक्ष के उपाय का चिंतनादि शुभ परिणामों से जीव शुभ प्रकृति और प्रदेश बंध को करता है । प्राणिघात, वध, बंधन, अनायतनगमन, स्वेच्छाचरण, विकार उत्पन्न करने वाली अशुभ काय असत्य, परुष, कटुक आदि रूपवचन, दूसरों की निंदा, झूठा उपदेश, धर्म विरूद्ध बोलना, विकथा करना आदि (84) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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