SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री सकलकीर्ति विपुल साहित्य निर्माण की दृष्टि से आचार्य सकलकीर्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने संस्कृति एवं प्राकृत वांगमय को संरक्षण की नहीं दिया, अपितु उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार भी किया। हरिवंशपुराण की प्रशस्ति में ब्रह्मजिनदास ने इनको महाकवि कहा है तत्पट्टपंकजविकासमास्वान बभूव निर्ग्रन्थवरः प्रतापी। महाकवित्यादिकलाप्रवीण: तपोनिधिः श्रीसकलादिकीर्तिः।। इससे स्पष्ट है कि इनकी प्रसिद्धि महाकवीश्वर के रूप में थी। आचार्य सकलकीर्ति ने प्राप्त आचार्यपरम्परा का सर्वाधिकरूप में पोषण किया है। तीर्थयात्रायें और जनसामान्य में धर्म के प्रति जागरुकता उत्पन्न की और नवमंदिरों का निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएँ करायीं। आचार्य सकलकीर्ति ने अपने जीवनकाल में 14 बिम्बप्रतिष्ठाओं का संचालन किया था। गलियाकोट में संघपतिमूलराज ने इन्हीं उपदेश से चतुर्विंशति जिनबिम्ब की स्थापना की थी। नागद्रह जाति के श्रावक संघपतिठाकुर सिंह ने भी कितनी ही बिम्बप्रतिष्ठाओं में योग दिया। आबू में इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसी की एक विशाल प्रतिमा परिकरसहित स्थापित की गई थी। निःसंदेह आचार्य सकलकीर्ति का असाधारण व्यक्तित्व था। तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी आदि भाषाओं पर अपूर्व अधिकार था। भट्टारक सकलभूषण में अपने उपदेशरत्नमाला नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में सकलकीर्ति को अनेक पुराणग्रन्थों का रचयिता लिखा है। भट्टारक शुभचन्द्र ने भी सकलकीर्ति को पुराण और काव्य ग्रन्थों का रचयिता बताया है। लिखा है "तच्छिष्याग्रेसराने कशास्त्रपयोधिपारप्राप्तानाम्, एकावलिद्विकावलि- कनकावलि, रत्नावलि, मुक्तावलि, सर्वतोभद्र, सिंहविक्रमादिमहातपो वजनाशितकर्मपर्वतानाम, सिद्धांतसार-तत्वसार- यत्याचारद्यनेकराद्धान्तविधातृणाम्, मिथ्यात्वतमो विनाशैकमार्ताण्डानाम्, अभ्युदय पूर्व निर्वाण सुखावश्यविधायि-जिनधर्माम्बुधिविवर्द्धनपूर्ण चन्द्राणाम्, यथोक्तचरित्राचरण- समर्थननिर्ग्रन्थाचार्यावर्याणाम् श्रीश्रीश्रीसकलकीर्ति भट्टारकाणाम्।" (1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy