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चार, अंतराय की पांच, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इन 16 प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति होती है। . उपशांत मोह और क्षीण मोह गुणस्थान में बन्ध व्युच्छित्ति का अभाव है। तथा सयोग केवली गुणस्थान में एक सातावेदनीय की बन्ध व्युच्छित्ति होती है। विशेष- प्रसंगानुसार प्रकृति बंध के विशेष नियम इस प्रकार से ज्ञातव्य हैं- तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्यक्त अवस्था में ही होता है। आहारक शरीर, आहारक आंगोपागं का बंध अप्रमत्तगुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक होता है तथा आयुकर्म का बंध मिश्र गुणस्थान और निवृत्ति अपर्याप्त अवस्था को प्राप्त मिश्रकाय योग के बिना मिथ्यात्व गुणस्थान से अप्रमत्तगुणस्थान पर्यंत होता है। अवशेष प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अपनी अपनी बंध व्युच्छित्ति पर्यंत जानना। प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तथा शेष तीन द्वितीयोपशमसम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में असंयत से अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ केवली अथवा श्रुत केवली के पादमूल में करते हैं।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पृथक् करने का कारण यह है कि इसका काल अंतर्मुहूर्त होने से इस सम्यक्त्व में सोहलकारण भावना नहीं भा सकते। अतः इस सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता। इस प्रकार किन्हीं आचार्यों ने कहा है। मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं अन्य गति वाले जीव तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ नहीं कर सकते, क्योंकि उनके विशिष्ट सामग्री का अभाव है। इसके बंध का प्रारंभ केवलीद्वय के पादमूल में ही होता है। ऐसा नियम है, क्योंकि अन्यत्र उस प्रकार की परिणाम विशुद्धि नहीं हो सकती, जिससे तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ हो सके। तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ तो चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यंत ही होता है, किन्तु आगे आठवे गुणस्थान के छठे भाग पर्यंत होता रहता है।
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