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________________ सम्पादकीय 1997 में "प्रकृति परिचय" और "सिद्धांतसार'' नामक ग्रन्थों के प्रकाशन के कार्य से मेरा दिल्ली. जाना हुआ था। उसी समय नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के दर्शनार्थ भी गया था। सुयोग से वहां के हस्त लिखित ग्रन्थ भण्डार की सूची भी देखने को मिल गई। उसी भण्डार में कर्म विपाक- आचार्य सकलकीर्ति विरचित देखने को मिला था। बहु प्रयास के फलस्वरूप इस ग्रन्थ की छायाप्रति भी मिल गई। मै इस हस्तलिखित प्रति को अपने पास रखे रहा, पाण्डु लिपि की लिपि को पढ़ना कठिन सा प्रतीत हुआ तथा ग्रन्थगत अशुद्धियों के कारण इस पर कार्य करना संभव नहीं हो सका। कुछ भण्डारों में खोज के पश्चात् यह ग्रन्थ नहीं मिला। इसी बीच 2002 में डॉ. कमलचन्द्र सोगाणी, अपभ्रंश भारती जयपुर से दूरभाष पर वार्ता हुई और उन्होंने कर्म विपाक ग्रन्थ आमेर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध होने की बात कही, आपने उस ग्रन्थ की एक छायाप्रति भी भेज दी। इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर हमने ब्र. अनिल जी के साथ कार्य प्रारंभ किया। किन्तु निर्दोष संपादन होने की संभावना नहीं दिखाई दी, क्योंकि दोनों ही प्रतियों में पर्याप्त अशुद्धियाँ थीं। ग्रन्थ सामान्यतः अपनी हस्तलिपि में लिख लिया। इसी बीच ब्र. अनिल जी का महाराष्ट्र जाना हुआ- वहाँ नातेपुते (महाराष्ट्र) से इस ग्रन्थ की तीसरी प्रति मिल गई। इन तीनों प्रतियों के आधार पर इस ग्रन्थ का कार्य किया और फलस्वरूप कार्य पूर्ण हो गया। पहले हमारा भाव विना अनुवाद के प्रकाशन का था किन्तु गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी से इस विषय में वार्ता हुई तो आपने कहा कि संभव हो तो अनुवाद सहित ही प्रकाशन करो। गुरुजी का आशीष प्राप्त कर, अनुवाद का कार्य हम लोगों ने प्रारंभ कर दिया। शीघ्र ही कार्य पूर्ण हो गया। यह ग्रन्थ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। प्रथम बार ही अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हो रहा है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य- कर्म विपाक नामक यह ग्रन्थ लघुकाय होते हुये भी महत् विषय का प्रतिपादन करता है। इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने कर्म प्रकृतियों के भेद निरूपण कर, उनके नाम दिये हैं, पश्चात प्रत्येक भेद की परिभाषा दी है, कर्म प्रकृतियों के विवेचन के पश्चात कर्मों की उत्कृष्ट-जघन्य स्थिति, अनुभागबन्ध और प्रदेश बंध के रूप में कर्मों के आस्रव के कारण तथा कर्मक्षय प्रक्रिया निरुपण की है। अंत में सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर ग्रन्थकार ने ग्रन्थ को पूर्ण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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