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________________ तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चार जाति, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर और 5 अंतराय इन 63 प्रकृतियों का असत्त्व रहता है। यहां सत्त्व व्चुच्छित्ति का अभाव है। अयोगकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय में सयोग केवली गुणस्थान के समान 85 प्रकृतियों का सत्त्व है। सयोग केवली गुणस्थान के ही समान 63 प्रकृतियों का असत्त्व है। 5 शरीर, 5 बंधन, 5 संघात, 6 संस्थान, 6 संहनन, 3 आंगोपांग, 8 स्पर्श, 5 रस, 2 गंध, 5 वर्ण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, निर्माण, अयशःकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, आसातावेदनीय और नीचगोत्र इन 72 प्रकृतियों की सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। ___ अयोग केवली के अंतिम समय में सातावेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र इन 13 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है। 148 प्रकृतियों में से इन 13 प्रकृतियों के बिना शेष 135 प्रकृतियों का असत्त्व जानना चाहिए तथा उक्त 13 प्रकृतियों की सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। गुणस्थानों में सत्त्व संबंधी नियम- मिथ्यात्व गुणस्थान में जिसके तीर्थकर प्रकृति का सत्त्व है उसके आहारकद्विक का सत्त्व नहीं होता तथा जिसके आहारक द्विक का सत्त्व होता है उसके तीर्थंकर प्रकृति का सत्त्व नहीं होता है। जिसके आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृति का युगपत् सत्त्व पाया जाता है उसके मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता अतः मिथ्यात्व गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा आहारक द्विक और तीर्थकर प्रकृति का युगपत सत्त्व न होकर एक का ही सत्त्व रहता है तथा नाना जीवों की अपेक्षा दोनों का सत्त्व पाया जाता है। इस (111) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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