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कालनिर्णय की दृष्टि से निचली सीमा का पता तो लग ही जाता है। लेकिन कई बार ऐसे संदर्भ ग्रंथों में प्रक्षिप्तांश की गुंजाइश रहती है। अतः ध्यान यह रखना चाहिए कि वे अंश मूल ही हों, क्षेपक नहीं।
संदर्भ ग्रंथ के अलावा, कई बार एक ही रचनाकार पर पूरा ग्रंथ लिखा हुआ भी मिल सकता है। किन्तु पाठालोचन आदि की दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता संदेह रहित होनी चाहिए। उदाहरण के लिए महात्मा तुलसी के एक अन्तेवासी वेणीमाधवदास ने 'मूलगुसांई चरित' लिखा। इस ग्रंथ से तुलसी विषयक कालसंकेत संबंधी प्रामाणिक सूचना मिलने की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन जब 'मूलगुसांई चरित' की प्रामाणिकता का आकलन किया गया तो यह रचना ही
अप्रामाणिक निकली। डॉ. उदयभानुसिंह ने तो इसकी अप्रामाणिकता के 14 कारण भी तर्क सहित प्रस्तुत कर दिये। उन्होंने साफ लिखा है कि 'मूल गोसांई चरित' एक अविश्वसनीय पुस्तक है। यही बात डॉ. रामदत्त भारद्वाज एवं डॉ. माता प्रसाद गुप्त भी मानते हैं। अतः बहि:साक्ष्य को महत्व देते समय उस ग्रंथ की प्रामाणिकता की परीक्षा अवश्य की जानी चाहिए। यदि ग्रंथ प्रामाणिक है तो अज्ञात कवि का पता भी चल जाता है और उसकी निचली कालावधि भी विदित हो जाती है।
(ख) रचनाकार विषयक लोकानुश्रुतियाँ : काल-संकेत रहित रचनाओं के काल-निर्णय में लोकानुश्रुतियाँ भी कभी-कभी बहुत सहायक सिद्ध हो जाती हैं। उनमें कभी-कभी खोई हुई कड़ियाँ मिल जाया करती हैं। ऐसी परिस्थिति में रचनाकार विषयक लोकानुश्रुतियों का संग्रह कर उनकी प्रामाणिकता की परीक्षा करनी चाहिए। लेकिन जनश्रुतियाँ यदि इतिहाससम्मत नहीं हैं तो वे प्रामाणिक नहीं मानी जा सकतीं। महात्मा तुलसीदास एवं मीरां के संदर्भ में यह अनुश्रुति है कि मीरां ने उनको पत्र लिखा था और उन्होंने उसका जवाब दिया था। किन्तु ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि मीरां तुलसी से पूर्व ही स्वर्गीय हो चुकी थीं। इसलिए कोई भी जनश्रुति तब तक व्यर्थ है जब तक कि वह अन्य ठोस आधारों से प्रामाणिक नहीं मान ली जाये।। 1. तुलसी काव्य मीमांसा : डॉ. उदयभानुसिंह, पृ. 23-35 2. गोस्वामी तुलसीदास : डॉ. रामदत्त भारद्वाज, पृ. 48 3. तुलसीदास : डॉ. माताप्रसाद गुप्त, पृ. 47
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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