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प्रस्तुत संस्करण ज्ञानावतार सत्पुरुष परम कृपावंत श्रीमद् राजचन्द्र के परम समाधि शताब्दि महोत्सव के निमित्त अप्रैल २००१ में अगास जाने का अवसर मिला । आठ दिन का यह आयोजन अपने आप में भव्य था । वहीं पर पूर्व परिचित पंडित मुमुक्षु श्री बाबूलालजी जैन गोयलीय से हमेशा धर्मचर्चा होती रहती थी । उन्होंने एक गुरुभार मुझे सौंपा कि पंडितप्रवर कविवर भूधरदास-रचित पार्श्वपुराण का प्रकाशन करना है । पुस्तक देखने पर ज्ञात हुआ कि इसका प्रकाशन हिन्दी एवं जैन साहित्य के आद्य प्रकाशक - संपादक पं.नाथूरामजी प्रेमी (मेरे ताऊजी) ने लगभग ८० साल पहले किया है । पार्श्वपुराण जैन सिद्धान्त से ओतप्रोत सरल व्रजभाषा में सुन्दर काव्य ग्रंथ है । इसे प्रकाशित करने का मन बनाया ।
आज के अंग्रेजीदां युग में घर में हिन्दी बोलनेवाले बालक तो मिल जायेंगे किन्तु पढ़ने-समझनेवाले नहीं । इसलिए सोचा कि प्रस्तुत ग्रंथ का कथासार अंत में दे दिया जाय तो ग्रंथ समझने में थोड़ी सी सुविधा होगी । यह गुरुभार मैंने आदरणीय पंडित श्री कमलकुमारजी शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य , टीकमगढ़वासी को सौंपा । उन्होंने तुरन्त ही यह कार्य सम्पन्न कर भेज दिया । कृतज्ञ हुआ | ___पं.भूधरदासजी पर आ. प्रेमीजी ने कुछ विशेष सामग्री नहीं दी थी । भगवान महावीर के २५००वे निर्वाण-महोत्सव पर प्रकाशित- भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा'-(लेखक : डॉ.नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य) के चौथे भाग में पं.भूधरदासजी पर अच्छी विस्तृत जानकारी दी है । उसे यथावत् यहाँ साभार ले रहे हैं।
पुस्तक प्रकाशन में श्री नारणभाई मंगलभाई देसाई, नडियाद, श्री शांतिलाल एम. महेता, मुंबई, सौ.कीर्ति दीपक जैन, चैन्नई, सुश्री सरोजिनी सुरेन्द्रनाथ जैन, मुंबई तथा आदरणीया बहन (बम्बईवाली) श्रीमती सुप्रभा कुन्दनलाल जैन सिंघई, टीकमगढ़ ने आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणी के प्रचार में महत् कार्य किया है । ये सभी साधुवाद के पात्र हैं ।
सद्यः स्थापित सन्मति ट्रस्ट का यह प्रथम सोपान है । ट्रस्ट की संस्थापिका और मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुधा जैन की सत्प्रेरणा का ही यह सुफल है कि यह ग्रंथ पुनः प्रकाशित हो सका है।
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