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________________ /१७१ जिनालयों की वंदना करता । अपनी इन्द्राणी के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ा करता हुआ काल व्यतीत करने लगा । आयु पूर्ण होने पर यह देव अच्युत स्वर्ग से मरण कर जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह के अश्वपुर नगर के वज्रवीर्य राजा एवं विजयारानी की कुक्षि से वज्रनाभि नामका पुत्र हुआ । जो बड़ा शक्तिशाली सुयोग्य पुत्र था । जब वह युवा हो गया तो राजा वज्रवीर्यने उसे अपना राजपाट सम्हला दिया और स्वयं मुनि बन कर आत्मकल्याण में प्रवृत्त हुए । एक दिन राजा वज्रनाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । जिसकी एक हजार देव सेवा करते थे । उस चक्ररत्न को प्राप्त कर राजा वज्रनाभि ने अनेक राजाओं को जीत कर चक्रवर्तिपद प्राप्त किया । अनेक कन्याओं के साथ ब्याह किया । उनके छयानवे हजार नारियां थीं | नवनिधि चौदह रत्नों का स्वामी था । छह खंडो का अधिपति था । चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े, इत्यादि वैभव से सम्पन्न चक्रवर्ति वज्रनाभि अनेक वर्षों तक राज्य करता रहा । लेकिन हमेशा धर्म कार्य में तत्पर रहता था । इनके बारे में लिखा है कि बीजराख फल भोगवै ज्यों किसान जग माहिं। त्यों चक्री नृप सुख करे धर्म विसारे नाहिं ।। इस प्रकार राज्य करते हुए कितना काल व्यतीत हो गया है इसका उसे ध्यान नहीं था । एक बार इसी नगरी में क्षेमंकर मुनिराज पधारे । उनकी वंदना अर्चना हेतु नगर निवासी सभी के साथ राजा वज्रनाभि अपने कटक के साथ गये । उनकी पूजन अर्चन के बाद सभा में बैठ गये । मुनिराज ने संसार के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा कि यह मोही प्राणी अनंतकाल से जन्म मरण करता हुआ संसार में भटक रहा है और दुख को ही सुख मान रहा है | चक्रवर्ति राजा वज्रनाभि को वैराग्य आ गया । उसने समस्त राजपाट छोड़ मुनिदीक्षा ले ली । एक दिन विहार करते हुए मुनि वज्रनाभि एक भयंकर जंगल में पहुँचकर ध्यान आरूढ़ थे । तभी वह कमठ का जीव जो अजगर सर्प हुआ था, मुनिराज को निगलकर महान पाप बंध कर, छठवें नरक में नारकी हुआ । वहां के दुखों को भोगता हुआ आयु पूर्ण कर कुरंग नाम का भील हुआ । शिकार की खोज में इसी जंगल में घूम रहा था । जहां उसने मुनिराज को बैठा देखा । धनुषबाण लिये यहां आ पहुचा और उसने मुनिपर धनुषबाण छोड़ दिया । मुनिराज इस उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन करते हुए समाधि पूर्वक मरण कर मध्यम ग्रैवेयिक में अहमिन्द्र हुए । इनकी सत्ताईस सागर की आयु केवल धर्मचर्चा करते हुए व्यतीत हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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