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________________ /१६५ पार्श्वपुराण-ग्रन्थका सार मंगलाचरण-पार्थस्तुति मोह अंधकार को नाश करने के लिए सूर्य के समान, तप लक्ष्मी के पति भगवान पार्श्वनाथ मुझे सुमति प्रदान करें | हे वामा के नन्दन ! आपने संसार के कल्याण के लिए जन्म लिया है । मुनिजन आप का ध्यान कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । हे तीनों लोकों के तिलक, सज्जन पुरुषों के हृदय कमल को विकसित करने वाले जगत के बांधव , अनंत अनुपम गुणों के भंडार ! आपने रागरूपी सर्प के दातों को उखाड़ कर फेंक दिया और अरहंत पद प्राप्त कर संसार के समस्त प्राणियों के शरणभूत हो गये हो । हे स्वामी ! मेरे मन में आकर, निवास करो मेरे मंगल करो । __ आप निर्मल ज्ञान के दातार हो, केवलज्ञान के धनी ! आपका मुखचन्द्र रात्रि के चंद्रमा को लजाता है | आपके नाम के मंत्र की जाप पापरूपी सो को भगाने में गरूड़ के समान काम करती है । आप सदा जयवंत रहें आपका प्रवचन संसाररूपी इस महल में रत्नों के दीपक समान प्रकाश करता है । हे सरस्वती देवी ! मेरे हृदयकमल में निवास कर मेरे सम्पूर्ण दारिद्र का नाश करो । मैं वृषभसेन आदि आचार्यों गुरूगौतम गणधर को नमस्कार करता हूँ जो संसार सागर से पार होने के लिए जहाज के समान हैं । और मैं कुन्दकुन्द आचार्यों को भी नमस्कार करता हूँ | जो जैन तत्त्वों के जाननहार है । इस प्रकार सम्पूर्ण पूज्यों को पूज्य कर मैं अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार भाषा पार्श्वपुराण की रचना करता हूँ जो स्वपर कल्याण करने वाली है। जिनेन्द्र भगवान के गुण तो अगम हैं जिनसेनाचार्य ने भी जिनका वर्णन कर अंत नहीं पा पाया है तब मैं अल्प बुद्धिवाला कौन सी गिनती मैं हूँ | जैसे जो भार हाथी भी नहीं ढो सकता उसे खरगोस पर रखा जाय तो कैसे ढो सकेगा | यह कार्य तो ऐसा हुआ जैसे आकाश को हाथ से नापना, सागर के जल को चुल्लू में भरना । फिर भी मैं भगवान के गुणों का वर्णन करने को उद्यत हआ हूँ। मुझ में शक्ति तो नहीं किन्तु भक्ति के बल मैं पार्श्वपुराण की रचना कर रहा हूँ | वह भी पूर्व आचार्यों के कहने के अनुसार । मगध देश में राजगृह नाम का बड़ा सुन्दर नगर है । उस में राजा श्रेणिक राज्य करते थे । उनके चेलना नाम की विदुषी पटरानी थी । राजा क्षायिक सम्यग्दृष्टि नीतिमान पुण्यपुरुष थे । एक दिन राजा राज्य सभा में बैठा था कि रोमांचित नामक वनमाली ने छहों ऋतुओं के फलफूल एक साथ लाकर राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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