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________________ १६०/पार्श्वपुराण जिनके सुखकौं ग्यानकी, नहिं उपमा जगमाहिं ।। जोतिरूप सुखपिंड थिर, इंद्रीगोचर नाहिं ||२९७।। अब तिनको आकार कछु, एकदेस अवधार ।। लिखौं एक दृष्टांत करि, जिन-सासन अनुसार ||२९८।। चौपाई। मोममई इक पुतला ठान | नखसिख समचतुरस्र-संठान ।। सब तन सुंदर पुरुषाकार | नराकार इसही बिध सार ||२९९।। माटीसौं इमि लेपहु सोय । जैसे त्वचा देहपर होय ।। कहीं अंग खाली नहिं रहै । सब उपचार कल्पना यहै ||३००।। पुनि सो लीजै अगनि तपाय । सांचा रहै मोम गल जाय ॥ अब ता भीतर करो विचार | कहा रह्यौ बुध ताहि निहार ||३०१।। अंतर मस पोल है जहां । पुरुषाकार रह्यौ नभ तहां ।। याही अंबरके उनहार | ब्रह्मस्वरूप जान निरधार ||३०२।। यह आकास सून्य जडरूप । वह पूरन चेतन चिद्रूप ॥ यही फेर है या वामाहिं । आकृतिमैं कछु अंतर नाहिं ||३०३।। या बिध परब्रह्मको रूप । निराकार साकार-सरूप ॥ यह दृष्टांत हिय निज धरो । भवि जिय अनुभवगोचर करो ||३०४॥ दोहा । बसैं सिद्ध सिवखेतमैं, ज्यों दर्पनमै छाहिं ।। ग्यान-नैनसौं प्रगट हैं, चर्म-नैनसौं नाहिं ॥३०५।। चौपाई। तब इंद्रादिक सुर समुदाय । मोख गये जाने जिनराय ।। श्रीनिर्वानकल्यानक काज । आये निज निज बाहन साज ||३०६।। परम पवित्त जानि जिन-देह । मनि-सिविकापर थापी तेह ।। करी महापूजा तिहिं बार । लिये अगर चंदन घनसार ||३०७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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