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१५८/पार्श्वपुराण
सुरभि पवन पीछे अनुसरै । वायुकुमार-जनित सुख करै ।। सुर नर पसू सभागत जेह । परमानंद सहित सब तेह ।।२७३।। मारुतसुर जोजनमित मही । करें धूलितृन-वर्जित सही ।। मेघकुमार करें मन लाय | गंधोदक बरसा सुखदाय ||२७४।। चरन-कमल जिन धारै जहां । कंचन-कमल रचें सुर तहां ।। सात कमलतें आगें ठान । पीछे सात एक मधि जान ।।२७५।। यों पंकजकी पंद्रह पांति । सबा दोइ सै सब इहिमांति ।। सुकलध्यान उपजे बहुभाय । निर्मल दिसि निर्मल नभ थाय ||२७६।। मुदित बुलावै देव-समाज | भविजनकौं जिन-पूजन काज || धर्मचक्र आगे संचरे । सूरज-मंडलकी छबि हरै ।।२७७।। मंगलदर्व आठ झलकाहिं । जथाजोग सुर लीये जाहिं ।। ये चौदह देवनकृत जान | वर अतिसय-मंडित भगवान ।।२७८।। करें विहार परमसुख होत । भवि जीवनके भाग उदोत || स्वर्ग मोख मारग प्रभु सार । प्रगट कियौ भ्रमतिमिर निवार ||२७९।। कहीं कुलिंगी दीखें नाहिं । भानु उदय ज्यौं चोर पलाहिं ।। सब निज निज वांछा अनुसार । पूरन आस भये तनधार ।।२८०।। कासी कौसलपुर पंचाल | मरहट मारूदेस विसाल || मगध अवंती मालव ठाम | अंग बंग इत्यादिक नाम ||२८१।। कीनौ आरजखंड विहार | मेटौ जग-मिथ्या-अँधियार || अब सब गनकी गनना सुनो । जथा पुरान-कथित बिध मुनो ।।२८२।। प्रथम स्वयम्भू प्रमुख प्रधान । दस गनधर सर्वागम जान || पूरवधारी परम उदास । सर्व तीन सै अरु पंचास ||२८३|| सिष्य मुनीसुर कहे पुरान । दसहजार नौ सै परवान ।। अवधिवंत चौदह सै सार । केवलग्यानी एकहजार ||२८४।।
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