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१५०/पार्श्वपुराण
उत्तम अतिथिनकौं सदा, दीजै चौबिध दानो जी ।। भान बड़ाई त्यागकै, हिरदै सरधा आनो जी ।। बारहव्रत बिध बरनऊं ।।१८३।। अंत समय संलेखना, कीजै सकति संभालो जी ।। जासौं व्रत संजम सबै, ये फल देहिं विसालो जी ।। बारहव्रत बिध बरनऊं ||१८४।।
चौपाई। तीनकाल सामायिक करै । पांचौं अतीचार परिहरै ।। सत्रु मित्र जानै इक सार | सो नर तीजी प्रतिमाधार ||१८५।। परब चतुष्टय तजि आरंभ । पोषह व्रत मांडै मनथंभ ।। सोलह पहर धरै सुभ ध्यान । सोई चौथी प्रतिमावान ||१८६।। त्यागै हरीजात जावंत । दल फल कंद बीज बहु भंत ।। प्रासुक जल पीवै तजि राग । सो सचित्तत्यागी बड़भाग ||१८७।। जो दिनमैं मैथुन परिहरै । मन वच काय सील दिढ़ धरै ।। षष्ठम प्रतिमाधारी धीर । यह जघन्य श्रावक वर बीर ||१८८|| जो सब नारि सर्वथा तजै । नौ बिध सदा सीलव्रत भजै ।। काम कथारत कबहिं न होय । सप्तम प्रतिमाधारी सोय ||१८९।। जिन सब तजे बिनज ब्योहार । निरारंभ बरतें मद छार || अहनिसि हिंसासौं भयभीत | अष्टम प्रतिमावंत पुनीत !!१९०|| जो समस्त परिग्रह परित्याग । उचित वसन राखै विनराग ।। सो नौमी प्रतिमा निरग्रंथ । यह मध्यम श्रावकको पंथ ।।१९१।। जो गृहस्थ-कारज अघमूल । तिनकौं अनुमति देय न भूल ।। भोजन समय बुलायो जाय । सो दसमी प्रतिमा सुखदाय ||१९२।।
दोहा । अब एकादसमी सुनो, उत्तम प्रतिमा सोय ।। ताके भेद सिधांतमैं, छुल्लक ऐलक दोय ||१९३।।
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