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१४८/पार्श्वपुराण
धिक वेस्या बाजारनी, (ग्यानी) रमती नीचन साथैरे ।। धनकारन तन पापिनी, (ग्यानी) बेचै विसनी हाथैरे ।।१६४।। अति कायर सबसौं डरें, (ग्यानी) दीन मिरग वनचारीरे ।। तिनपै आयुध साधते, (ग्यानी) हा अतिकूर सिकारीरे ||१६५।। प्रगट जगतमैं देखिये, (ग्यानी) प्रानन धनतें प्यारौरे ।। जे पापी परधन हरे, (ग्यानी) तिनसम कौन हत्यारौरे ||१६६।। परतिय व्यसन महा बुरो, (ग्यानी) यामैं दोष बड़ेरोरे ॥ इहि भव तन धन जस हरै, (ग्यानी) परभव नरक बसेरोरे ।।१६७।। पांडव आदि दुखी भये, (ग्यानी) एक व्यसन रति मानीरे ॥ सातनसौं जे सठ रचे, (ग्यानी) तिनकी कौन कहानीरे ||१६८।।
दोहा । पंच उदंबर फल कहे, मधु मद मास प्रकार || इनके दूषन परिहरो, पहली प्रतिमा धार ||१६९।।
चौपाई। पांच अनुव्रत गुनव्रत तीन । सिच्छाव्रत चारों मलहीन ।। बारहव्रत धारै निर्दोष । यह दूजी प्रतिमा व्रतपोष ।।१७०॥
दोहा। अब इन बारह व्रतनकौ, लिखों लेस विरतंत ।। जिनको फल जिनमत कह्यौ, अचुत-स्वर्ग परजंत ||१७१।।
ढाल | जो नित मन वच कायसौं, कृत आदिकसौं जेहों जी || त्रसको त्रास न दीजिये, प्रथम अनुव्रत एहों जी ॥ बारहव्रत-बिध बरनऊँ ।।१७२।। झूठ वचन नहिं बोलिये, सबही दोष निवासो जी । दूजो व्रत सो जानिये, हितमित वचन संभासो जी ।। बारहव्रत बिध बरनऊं ।।१७३।।
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