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नौवाँ अधिकार/१४१
असदभूत व्यवहार, पच्छ जो ठानिए । तो यह मूरतिवंत, कथंचित मानिए ||९१।।
दोहा। प्रकृतिबंध थितिबंध पुनि, अरु अनुभाग प्रदेस ।। चार भेद यह बंधके, कहे पास परमेस ।।९२।। बंधविवर्जित आतमा, ऊरध-गमन करेय ।। एक-समय-करि सरलगति, लोकअंत निवसेय ||९३।। ज्यों जलतूंबी लेपबिन, ऊपर आवै सोय ।। त्यों ऊरधगति राम यह, कर्मबंध बिन होय ॥९४|| जबलौं चऊबिध बंधसौं, बंधे जीव जगमाहिं ।। सरल वक्र तबलौं चलैं, विदिसामैं नहिं जाहिं ।।९५।। अमृतचंद्र मुनिराजकृत, किमपि अर्थ अवधार || जीव-तत्त्व-वर्णन लिख्यौ, अब अजीव अधिकार ||९६।। पुद्गल धर्म अधर्म नभ, कालनाम अवधार || ये अजीव जड़-तत्त्वके, भेद पंच परकार ||९७|| तिनमैं पुद्गल दोय बिध, बंधरूप अनुरूप ।। यह सब हैं रूपी दरब, चारौं और अरूप ||९८॥ अनुरूपी पुद्गल दरब, छेद भेद नहिं जास | अगनि जलादिक जोगसौं, होय न कबही नास ||९९।। जा अविभागीमैं नहीं, आदि मध्य अवसान || सब्द रहित पर सब्दको, कारणभूत बखान ||१००।।
सोरठा। भू जल पावक वाय, हेतुरूप सबको यही ।। बहुबिध कारन पाय, वरनादिक पल तुरत ||१०१।।
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