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आठवाँ अधिकार/१२९
चौपाई। इह बिध समोरसरन मंडान | कियौ कुबेर जथाबिध थान || आये सुर बरसावत फूल | जयजयकार करत सुखमूल ||१३४।। अति प्रसन्नता सब बिध भई । हरसत तीन प्रदछिना दई ।। धूल सालिमैं कियौ प्रवेस | चकित भयौ छबि देखि सुरेस ।।१३५।। मुदित महर्धिक देवन साथ । जिन सनमुख आयौ सुरनाथ ।। हस्त कमल जोरे अमरेस | देखे दृग भरि पासजिनेस ||१३६।। मनि उतंग आसन पर ईस । मानौं मेघ रतनगिरि-सीस || फैल रही तन-किरन कलाप | कोट भानुसौं अधिक प्रताप ||१३७।। विकसत चित रोमांचित काय । प्रनम्यौ चरन सीस भुवि लाय || मनिझारी भरि तीस्थतोय । पूजे मघवा जिनपद दोय ||१३८।। सुरभ-सुगंधनि भक्ति बढ़ाय । अरचे इंद्र जिनेसुरपाय || मुक्ताफलमय अच्छत लिये । पुंज परमगुरु आगे दिये ||१३९।। पारिजात मंदार मनोग | पुहप चढ़ाये जिनवर जोग ।। सुधापिंड चरु लेय पवित्त । पूजा करी सक्र धरि चित्त ।।१४०।। रतनप्रदीप रवाने खरे | श्रीपति पाँय सचीपति धरे ।। देवलोककी अगर अनूप | पासचरन खेई सुरभूप ||१४१।। कलपतरोवरके फल रजे । जगपतिपाँय पुरंदर जजे ।। सरब दरब धरि करि परनाम । दीन्यौ इंद्र अरघ अभिराम ||१४२।।
दोहा।
करि जिनपूजा आठ बिध, भावभगति बहुभाय । अब सुरेस परमेसथुति, करत सीस निज नाय ||१४३।।
चौपाई। प्रभु इस जग समस्थ नहिं कोय | जापै जस-बरनन तुम होय ।। चार ग्यानधारी मुनि थके | हमसे मंद कहा कर सके ||१४४।।
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