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________________ पाठ १० पउमचरिउ हरुल्लए कज्जलु । काहे वि पोत्तिउ पडुए अंचलु ॥ घत्ता॥ विवरेरउ णायरियायणु। किउ लवणंकुस दंसणेण। जगे कामें को वि न वद्ध। ससरें कुसुमसरासणेण ॥१॥ आपल्लइ करन्त तरुणीयणे। लवणंकुस पइसारिय पट्टणे। तहि तेहए पमाणे विज्जाहर लंकाहिव किकिंध पुरेसर । भामण्डल णल नीलंगंगय। जणय कणय मरुतणय समागय। जे पट्टविय गाम पुर देसहुं । गय हक्कारा ताहुं असेसहुं। णाणा जाण विमाणहि आइय । णं जिण जम्मणे अमर पराइय। दिदु रामु सोमित्ति महाउसु। दिट्ठ अणंगलवणु मयणंकुसु। सत्तुहणो वि दिट्ठ तहि सुंदर। एक्कहिं मिय पंच णं मंदर। पुणरवि रामहो किय अहिवंदण। धण्णउं तुहं जसु एहा णंदण ॥ पत्ता॥ एत्तडउ दोसु परह रहुवइहे। जं परमेसरि णाहिं घरि। मए मायाहिं लोयहुं छांदणं। आणेवि का वि परिक्ख करि॥ २॥ तं णिसुणेवि चवइ रहुणंदणु। जाणमि सीयहे तणउ सइत्तणु। जाणमि जिह हरिवंसुपण्णी॥ जाणमि जिह वय गुणसंपण्णी। जाणमि जिह जिणसासणे भत्ती॥ जाणमि जिह महु सोक्खुपत्ती। जा अणु गुण सिक्खा वयधारी॥ जा संमत्तरयण मणिसारी। जाणमि जिह सायरगंभीरी। जाणमि जिह सुर महिहर धारी। जाणमि अंकुस लवण जणेरी। जाणमि जिह सुय जणयहो केरी। जाणमि सस भामण्डल रायहो। जाणमि सामिणि रज्जहो आयहो। जाणमि जिह अंतेउर सारी। जाणमि जिह महु पेसणगारी॥ घत्ता॥ मेल्लिप्पिणु णायर लोएण। महुं घरे उब्भा करेवि कर। जो दुजसु उप्परि घित्तउ एउ ण जाणहुँ एक्कु परा॥३॥ तहिं अवसरे रयणासव जाएं। कोकिय तियड विहीसण राएं। वोल्लाविय एत्तहे वि तुरंते लंकासुंदरि तो हणुवंतें। विण्णि वि विण्णवंति पणमंतिउ। सीय सइत्तण गव्व वहंतिउ। देव देव जइ हुयवहु डज्झइ। जइ मारुउ पड पोट्टले वज्झइ। जइ पाले णहंगणु तिट्ठइ। कालन्तरेण कालु जइ उप्पज्जइ मरणु कियंतहो। जइ णासइ सासणु अरहंतहो। जइ अवरे उग्गमइ दिवायरु मेरु सिहरि जइ णिवसइ सायरु। एउ असेसु इ संभाविजइ। सीयहे सीलु ण पुणु मइलिजइ॥ घत्ता ।। अपभ्रंश-पाण्डुलिपि चयनिका (99) www.jainelibrary.org an Education n For Private & Personal Use Only ational
SR No.002683
Book TitleApbhramsa Pandulipi Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages126
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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