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श्री सिद्धाचलमण्डन श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः ।
श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महइमहावीरवद्धमाणसापिस्स। श्री पुण्डरीकस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः ।
श्री सद्गुरुदेवेभ्यो नमः ।
वृत्ति-पञ्जिका-सहित न्यायप्रवेशक की
प्रस्तावना
परमकृपालु परमात्मा तथा परमोपकारी पूज्यपाद पिताश्री एवं गुरुदेव मुनिराज़ श्री भुवनविजयजी महाराज की कृपा से बौद्धन्याय के अभ्यासियों के समक्ष वृत्ति-पञ्जिका सहित न्यायप्रवेशक ग्रन्थ प्रस्तुत करते हुए हम अत्यन्त आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। विक्रम की चौथी शताब्दी में हुए बौद्ध तर्कशास्त्र के पिता के रूप से ख्यातिमान् बौद्धाचार्य दिङ्नाग रचित न्यायप्रवेशक नाम का अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसके ऊपर विक्रम की सातवीं शताब्दी में हुए याकिनीमहत्तराधर्मसूनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरि विरचित शिष्यहिता नाम की टीका तथा विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुए श्री पार्श्वदेवगणि विरचित न्यायप्रवेशकवृत्तिपञ्जिका की ताडपत्रोपरिलिखित प्राचीन तथा कागज ऊपर लिखित प्राचीन-अर्वाचीन प्रतियों के आधार से इसका संशोधन व सम्पादन किया गया है।
आज से लगभग 77 वर्ष पूर्व (ईस्वी सन् १९३०) ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा की तरफ से यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था । उसके सम्पादक गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान् आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुव थे । उस समय में उन्होंने प्राप्त सामग्री के आधार पर इस ग्रन्थ का संशोधन-सम्पादन किया था। उनको प्राप्त सामग्री किस प्रकार की थी, उसका उन्होंने अपनी प्रस्तावना में उल्लेख किया है। उसी को अक्षरशः हमने इस प्रकाशन के पृष्ठ XVII पर दिया है। अल्प तथा खण्डित प्रतियों के आधार से किए गए संशोधन सम्पादन में कमियाँ रह जाना स्वाभाविक ही है ।
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