________________
कलिकलाख्यो हिन्दीमाषाऽनुवादः
१५५
पादन करने की रीति को सम्यग्ज्ञानी हीं जान सकते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टिबाले नहीं । हे जिनेन्द्र ! इस प्रकार पदार्थ के यथार्थ रूप में प्रतिपादन करने की रीति आपने ही बतायी है। (दूसरे लोग पदार्थतत्त्व से अनभिज्ञ होनेके कारण ही एकान्तवाद का प्रतिपादन करते हैं। काल आदि अभिन्न होनेके कारण पदाथों को अभिन्न मानकर प्रतिपादन करना सकलादेश है। जैसे घट की सत्ता का जिस काल में प्रतिपादन किया जाता है, उस काल में शेष अनन्त पदार्थों की सत्ता भी रहती है, इसलिये काल एक होनेके कारण घट की सत्ता तथा शेष अनन्त पदार्थों की सत्ता में भी अभेद का आरोप होने से घटकी सत्ता का प्रतिपादन से शेष अनन्त पदार्थों की सत्ता का भी प्रतिपादन हो जाता है । इसलिये घट भी शेष अनन्त पदार्थों से अभिन्न रूप में प्रदिपादित होता हैं। तथा पदार्थ पररूप की अपेक्षा से असत् भी है, इसलिये पदार्थ सत् ही हैं, ऐसा नहीं कहा जासकता । किन्तु कथञ्चित् शब्द के साथ पदार्थ के प्रतिपादन में सातप्रकार के वाक्यप्रयोग होते हैं । जैसे-घट कथञ्चित् सत् ही है । घट कथञ्चित् असत् ही है । घट कथञ्चित् सत् हीं है कथञ्चित् असत् ही है । इन तीनों वाक्यों में प्रथम वाक्य में सत्त्वमात्र की विवक्षा है। किन्तु पदार्थ मात्र पररूप की अपेक्षा से असत् भी है । इसलिये सत् ही है, ऐसा नहीं कहकर कथञ्चित् कहा गया है । ऐसे ही दूसरे वाक्य में भी असत् की विवक्षा है । तीसरे में सत् की गौणं भाव से,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org