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अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिकास्तुतिः
पञ्च महाभूत शब्द आदि पञ्चतन्मात्रा से उत्पन्न हुए हैं । पुरुष चेतन है, किन्तु निर्लेप है, क्योंकि बुद्धि को ही पदार्थ के साथ सम्बध है। पुरुष को 'यह बुद्धि का सुख दुःख आदि धर्म है, मेरा नहीं' इस प्रकार का विवेक नहीं होना हीं. उसका बन्ध है, तथा उस विवेक का होना ही मोक्ष हैं।) वस्तुतः पुरुष का बन्ध मोक्ष नहीं होता है । (प्रकृति ही नाना पुरुष से सम्बद्ध होनेपर बन्ध को प्राप्त होती है, तथा उस सम्बन्ध को छोडने पर मुक्त होती है । पुरुष में बन्ध मोक्ष का व्यवहार कल्पित हीं है।) यह सब विरुद्ध इस प्रकार है-जैसे चैतन्य का अर्थ है विषय का ग्रहण करना । यदि वह विषयों का ग्रहण नहीं करता है, तो उसको चैतन्य ही नहीं कहसकते । इसलिये चैतन्य है, किन्तु विषय का ग्रहण नहीं करता हैं, यह विरुद्ध है। बुद्धि चैतन्य का पर्यायवाचक शब्द है । इसलिये उसको जड़ कहना विरुद्ध है । आकाश आदि नित्य हैं, इस विषय में सब एकमत हैं । इसलिये आकाश आदि की उत्पत्ति का प्रतिपादन करना विरुद्ध है । प्रकृति से भेद का ग्रह नहीं होना ही बन्ध है, तो वह पुरुष के नहीं होगा, तो जड़ प्रकृति को कैसे होगा ?। यदि बन्ध पुरुष का है, तो मोक्ष भी उसका ही होगा। इसलिये पुरुष का बन्धमोक्ष नहीं है, यह विरुद्ध है। विरुद्ध प्रतिपादन करना जड़ता (अल्पबुद्धि) का लक्षण है।) ॥१५॥
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