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________________ १४४ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः जाय, तो उसको सत् मानना ही पड़ेगा। माता को बन्ध्या नहीं कहा जा सकता । उसी प्रकार असत् माया को जगत् का प्रतिभासक नहीं माना जा सकता । जैसे बन्ध्या को माता नहीं कहा जा सकता। कार्य ही सत्, का लक्षण है। यदि माया कार्य करती है, तो वह अवश्य ही सत् है। यदि माया असत् हैं, तो वह कार्य नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष दृश्यमान जगत का अपलाप नहीं हो सकता । इसलिये 'ब्रह्म ही एक सत् है' यह सिद्धान्त युक्ति विरुद्ध है ॥ १३ ॥ (सामान्य एक है, विशेष अनेक हैं। इसलिये पदार्थ सामान्यविशेषात्मक नहीं हो सकते। इस प्रकार का तर्क युक्ति संगत नहीं। क्यों कि-) घटादि पदार्थ सामान्य रूप से (सङ्ग्रहनय के अभिप्राय से) एक-कथञ्चित् अभिन्न ही हैं, तथा विशेष रूप से (व्यवहार नय के अभिप्राय से) कथञ्चित् भिन्न हीं है । पदार्थों में व्यावहारिक दृष्टि से व्यक्तिभेद की प्रतीति होती है। सामान्यदृष्टि से पदार्थों में भेद की प्रतीति नहीं होती है । जो एक घट का सामान्य है, वही दूसरे घट का भी सामान्य है। अन्यथा एक घट के देखने के बाद दूसरे घट के देखने पर अपने आफ 'यह घट है' ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता। हाँ ; व्यक्ति की अपेक्षा से सामान्य को भी कथञ्चित् अनेक मानते हैं। इस प्रकार सामान्य और विशेष दोनो ही अपेक्षाभेद से एक और अनेक हैं । ऐसी स्थिति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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