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________________ १४२ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः अपने पुत्र को मारकर राज्यप्राप्ति की इच्छा के समान है । (जैसे पुत्र के वध से राज्य मिलने पर भी पुत्रमरण का शोक होता हीं है, वैसे ही यज्ञ में की गयी हिंसा से काम्य फल के मिलने पर भी हिंसा का दोष लगता ही है। जो पशु पुत्र के जैसे पालनीयां हैं, उनका अपनी कामना की सिद्धि के लिये वध करना पुत्र का वध करना ही है। इसलिये हिंसा सर्वथा त्याज्य है, वह धर्म का हेतु नहीं हो सकता ।) ॥ ११ ॥ . हे जिनेन्द्र ! ज्ञान (दीप के समान) स्व तथा पर पदार्थ को प्रकाशित करते हुए ही प्रकाशित होता है। प्रकाशक को स्वप्रकाश के लिये किसी दूसरे प्रकाशक की अपेक्षा नहीं रहती। (प्रकाशक प्रकाश रूप से स्वयं ही प्रकाशित होता है । दीप को जानने के लिये दूसरे दीप की आवश्यकता नहीं होती)। यदि पदार्थ का. प्रकाशक ज्ञान को, तथा उस ज्ञान का प्रकाशक किसी दूसरे ज्ञान को माना जाय, तो पदार्थ का प्रकाश असम्भव हो जायगा । (क्योंकि एक ज्ञान के प्रकाश के लिये दूसरे ज्ञान की, उसके प्रकाश के लिये तीसरे ज्ञान की, इस प्रकार परम्परा बढ़ती ही जायगी, इस लिये ज्ञान का प्रकाश नहीं हो सकेगा। तो ज्ञान के प्रकाशित हुए विना अर्थका प्रकाशन कैसे होगा ? 1) 'फिर भी जैसे तलवार अपने आप को काट नहीं सकता, वैसे ही ज्ञान स्वको प्रकाशित नहीं कर सकता ' इस प्रकार के तर्क उपस्थित करने बाले प्रतिवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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