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________________ १४.० अन्ययोगव्यवच्छेददानिशिकास्तुतिः मात्र में ही रहने बाली है, अन्यत्र नहीं । यह युक्तिसिद्ध बात है।) फिरभी अयथार्थ ऐसे एकान्तवाद का स्वीकार करने के कारण नष्टबुद्धिबाले अन्यतीर्थिक लोग आत्मा को देह से बाहर भी रहने बाली (व्यापक ) कहते हैं। युक्ति के अभाव के कारण आत्मा व्यापक नहीं । इसलिये चैतन्य को औपाधिक मानना भी आवश्यक नहीं है। किन्तु चैतन्य आत्मा का स्वभाव है । इसलिये मुक्ति ज्ञानमय तथा आनन्दमय है । आत्मा के व्यापक सिद्ध नहीं होने से, व्यापकत्वमूलक सभी बातें मूल के अभाव में शाखा के जैसे ही अपने आप असत् होजाती हैं।) ॥ ९ ॥ हे जिनेश्वर ! लोग स्वयं ही वितण्डा ( अपने पक्ष की चिन्ता किये बिना ही परपक्ष के खण्डन करने ) में पण्डित होने के कारण बोलने को सदा उत्सुक तथा विवाद में अभिरुचि बाले होते हैं । फिरभी प्रतिवादी के पक्ष का खण्डन करने के लिये वैसे लोगों को माया (छल, जाति आदि निग्रह स्थानों) का उपदेश देने से, ऐसा लगता है कि अन्यतीर्थिकों के मुनि (गुरु) विरक्त हो गये हैं प्रतिवादी के पक्ष को सत् तर्कों से खण्डन करने में असमर्थ होने के कारण चिढ़ गये हैं । अन्यथा अपने अनुयायियों को 'छल आदि के द्वारा परपक्ष का खण्डन कैसे कियाजाय ' इस प्रकार का उपदेश क्यों देते ? ।) अथवा छल आदि का उपदेश करने बाले ये मुनि अद्भुत (दूसरे विरक्तों की अपेक्षा से नवीन ) विरक्त-निस्पृह हैं। या (जो निस्पृह है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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