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________________ १३२ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः ज्ञान नहीं हो सकता, न उक्त गुण हीं प्राप्त हो सकते हैं । इसलिये उस परमात्मा की हीं स्तुति के लिये यत्न करना इष्ट है | ) ॥ १ ॥ हे नाथ ! मैं आपके दूसरे गुणों की स्तुति के लिये भी बहुत उत्सुक हूँ । परन्तु पदार्थ की परीक्षा में सविशेष प्रवृत्ति होने के कारण, आपके यथार्थरूप से वस्तुओं के प्रतिपादन करनेवाले सिद्धान्तरूप गुण हीं मेरी स्तुति का लक्ष्य है । ( आपके गुणों की स्तुति तो इच्छा रहने पर भी अशक्य है । क्यों कि उसके लिये अपेक्षित बुद्धि प्रतिभा आदि सामग्री पर्याप्त नहीं हैं । ऐसी स्थिति में अपनी शक्ति के आनुसार मैं अपने प्रिय विषय में हीं उद्योग करता हूँ । इस प्रकार के उद्योग में आंशिक भी सफलता मिलती हीं है । ) ॥ २ ॥ हे जिनेश्वर ! गुणों में दोष का आरोप करने की धारणा बाले ये अन्य तीर्थिक लोग आप को स्वामी नहीं मानें । ( इसके लिये कुछ कहना नहीं है । क्यों कि उक्तधारणा को छोड़े विना गुणवान को कोई कैसे स्वामी मान सकता है ? । जो गुणों को समझता है, वही गुणी को स्वामी मानता है ।) फिरभी जरा आखें मूंदकर स्थिर चित्त से सच्ची युक्तयों का या सच्चे सिद्धान्त मार्गों का तो विचार अवश्य हीं करें। (विना विचारे दोष का आरोप करनेवाले गुण से वञ्चित हीं हते हैं । यदि वे लोग स्थिर चित्त से विचार करें तो उनको अपनी धारण बदलनी होगी, और तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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