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________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दिभाषानुवादः १२१ हे जिनेन्द्र ! दूसरे तीर्थकरों के सिद्धान्त एकान्तवाद हैं, क्यों कि वह पदार्थ के किसी एक अंशका ही प्रतिपादन करते हैं । आप का सिद्धान्त तो अनेकान्तवाद है, क्यों कि वह वस्तु में रहने. बाले अनन्त धर्मों का प्रतिपादन करता है। इसलिये एकदेशी परशासनों से आपके सार्वदेशिक शासन की पराजय की बात, जुगनूं के प्रकाशके आडम्बर से सूर्यमण्डल का पराभव जैसा ही है । ( एकान्त वाद एकदेश को प्रकाशित करने बाले या एकदेशी राजाके समान है, तथा अनेकान्तवाद सर्व अंश को प्रकाशित करने बाले सूर्यमण्डल के समान या सार्वभौमचक्रवर्ती राजा के समान है । इसलिये दोनों में जयपराजय की बात ही असङ्गत है ।) ॥८॥ हे पालनहार ! जिनेन्द्र ! (युक्तियुक्त तथा सन्मार्गप्रदर्शक होनेके कारण) पवित्र सत्य तथा पुण्यकारक ऐसे आपके शासन में जो सन्देह तथा अश्रद्धा करता है, वह रुचिकर तथा हितकर पथ्य में सन्देह तथा अश्रद्धा करने बाले (रोगी) के समान है। (वह कभी भी भव रोग से मुक्ति नहीं पा सकता है) ॥९॥ हे जिनेन्द्र ! आप से भिन्न तीर्थकरों के आगम प्रामाणिक नहीं हैं, । क्यों कि वे हिंसा आदि से सम्पन्न होने बाले यज्ञ आदि असत् कर्ममार्ग का उपदेश करने वाले हैं। सर्वज्ञ के द्वारा उन आगमों की रचना नहीं हुई है। तथा क्रूर एवं दुर्बुद्धि लोग ही उन आगमों का स्वीकार करने बाले हैं । (ये सब प्रामाणिक आगम के लक्षण नहीं हैं) ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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