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________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषाऽनुवादः द्वेष आदि दोषों को आपने चारित्र पालन आदि अनेक उपायों के द्वारा दूर किये। उन दोषों को हीं, दूसरे तीर्थों के प्रवर्तकों ने आप के गुणों में दोषों के आरोप करने के कारण हीं जैसे, सार्थक किये हैं । यह आश्चर्य है । (जो गुण में दोष का आरोप करता है, वह दोष को गुण मान कर स्वीकार कर लेता है । अन्यथा गुण में दोष का आरोप नहीं किया जा सकता । इसलिये दूसरे तीर्थङ्कर इस दोष को स्वीकार कर स्वयंदूषित हो गये हैं । इसलिये दोष सार्थक हुआ । दूषित करने से दोष कहा जाता है । आपने तो उसका त्याग हीं कर दिया है, यदि दूसरे भी उसका त्याग कर दें तो किसीको दूषित नहीं करने के कारण दोष निरर्थक हो जाता । विवेकी लोगों की ऐसी प्रवृत्ति देखी नहीं गयी, इसलिये यह आश्चर्य है । इस प्रकार आप रागद्वेष आदि दोषो से रहित हैं । तथा दूसरे तीर्थकर द्वेष आदि दोषों से युक्त हैं । इसलिये उनकी स्तुति इष्ट नहीं । गुणवान् की स्तुति की जाती है, दोषी की नहीं |) ॥४॥ ११९ हे वीर जिन ! यथार्थ स्वरूप में वस्तु का उपदेश देने के कारण आप दूसरे तीर्थकरों के जैसा कौशल नहीं रखते हैं । ( वस्तु अनेकान्त रूप है, उस रूप में उसका प्रतिपादन वरना कौशल नहीं । क्यों कि वस्तु स्वयं उस रूप में है पादन करना तो कौशल के विना सम्भव नहीं सींग के जैसे असत् एकान्त को प्रतिपादन करते । । Jain Education International हुए विचित्र प्रतिभा वाले दूसरे तीर्थकरों को नमस्कार हो । ( आप यथार्थ कहने For Private & Personal Use Only दूसरे रूप से प्रति - इसलिये) घोडे के www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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