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श्रीमद् राजचन्द्र
त्त्विक लोभको अपना कर परकीय वैभव-धन-दौलत-को पत्थरके समान समझू; और बारह व्रत तथा विनीतता धारण कर, अपने स्वरूपका विचार कर अपने में सात्त्विक-भाव-वीतराग-दशा-उत्पन्न करूँ। सदा कल्याणकारी और संसारका नाश करनेवाला मेरा यह नियम अखण्ड रहे।"
और जिनकी खोज कर अपने ज्ञान और
तथा-----
"श्रीवीरप्रभुको हृदयमें धारण कर अपने ज्ञान और विवेकको बढ़ाऊँ, नित्य नई तत्त्वोंकी खोज करके अनेक प्रकार उत्तम ज्ञान लाभ करूँ;
और जिनप्रभुके उपदेशको धारण करूँ कि जिससे संशय-रूपी बीज हृदयमें न उग सकें । हे आत्मन् , तू सदा यह मनोरथ कर, कि यही मेरा राज्य है । इससे तू मोक्षके किनारे जा पहुँचेगा।"
श्रीमद् राजचंद्रके इन मनोरथोंसे जान पड़ता है कि उनका चित्त स्व-परके कल्याण-निमित्त तत्पर था। उनकी कविताके पहले दो चरण इस बातको प्रकट करते हैं कि वे जिनप्रभुके कहे हुए स्वदार-सन्तोष-व्रत तथा परिग्रहपरिमाण-व्रतके धारक रह कर चलना चाहते थे। क्योंकि उन्होंने जो परस्त्री तथा पर-धनका निषेध किया है वह उक्त व्रतोंके धारण-पूर्वक रहनेको ही सूचित करता है । आगेके चरणोंसे जान पड़ता है कि वे आत्म-हितकी इच्छा-पूर्वक गृहस्थावस्थाका उत्तम रीतिसे उपभोग करते हुए आत्मकल्याण करना चाहते थे। और इस कारण उनकी बड़ी अभिलाषा थी कि वे आत्म-कल्याणके साथ साथ समाजको भी जिनप्रभुके उपदेशानुसार ज्ञान-विवेकादिका यथार्थ तत्त्व समझावें ।
इस प्रकार जिस पुरुषके मनोरथ हों उसकी इच्छा स्वभावसे ही
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