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________________ ६० श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत इसका वर्णन किया जाना चाहिए । कारण यह बड़ा ही गहन विषय है । परन्तु यहाँ तो प्रधानतासे इतना ही ध्यान आकर्षित करनेका था कि आत्मा कर्मोंका भोक्ता है, और इसी लिए यहाँ पर यह विषय अत्यन्त ही संक्षेपमें कहा गया । शिष्यकी शंका | शिष्य कहता है कि 'जीवकी कर्मोंसे मुक्ति नहीं हो सकती' । वह इस प्रकार - कर्त्ता, भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहीं मोक्ष । वीत्यो काळ अनंत पण, वर्त्तमान छे दोष ॥ ८७ ॥ कर्ता भोक्तास्तु जीवोsपि तस्य मोक्षो न विद्यते । व्यतीतोऽनन्तकः कालस्तथाऽप्यात्मा तु दोषभाक् ८७ अर्थात् जीवको कर्मोंका कर्त्ता और भोक्ता होने पर भी उसकी कर्मोंसे मुक्ति कभी नहीं हो सकती; क्योंकि हजारों-लाखों वर्ष बीत चुके तब भी कर्मोंका कर्तृत्व-रूपी दोष उसमें विद्यमान है । शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गतिमांय । अशुभ करे नरकादि फळ, कर्मरहित न क्यॉय ८८ शुभकर्मकरो जीवो देवादिपदवीं व्रजेत् । अशुभकर्मकृज्जीवः श्वभ्रं, न क्वाऽप्यकर्मकः ॥८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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