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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
इसका वर्णन किया जाना चाहिए । कारण यह बड़ा ही गहन विषय है । परन्तु यहाँ तो प्रधानतासे इतना ही ध्यान आकर्षित करनेका था कि आत्मा कर्मोंका भोक्ता है, और इसी लिए यहाँ पर यह विषय अत्यन्त ही संक्षेपमें कहा गया ।
शिष्यकी शंका |
शिष्य कहता है कि 'जीवकी कर्मोंसे मुक्ति नहीं हो सकती' । वह
इस प्रकार -
कर्त्ता, भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहीं मोक्ष । वीत्यो काळ अनंत पण, वर्त्तमान छे दोष ॥ ८७ ॥
कर्ता भोक्तास्तु जीवोsपि तस्य मोक्षो न विद्यते । व्यतीतोऽनन्तकः कालस्तथाऽप्यात्मा तु दोषभाक् ८७ अर्थात् जीवको कर्मोंका कर्त्ता और भोक्ता होने पर भी उसकी कर्मोंसे मुक्ति कभी नहीं हो सकती; क्योंकि हजारों-लाखों वर्ष बीत चुके तब भी कर्मोंका कर्तृत्व-रूपी दोष उसमें विद्यमान है ।
शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गतिमांय । अशुभ करे नरकादि फळ, कर्मरहित न क्यॉय ८८ शुभकर्मकरो जीवो देवादिपदवीं व्रजेत् । अशुभकर्मकृज्जीवः श्वभ्रं, न क्वाऽप्यकर्मकः ॥८८॥
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