________________
५८
श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतऔर अपने कर्मोका फल भोगनेके लिए ईश्वरका आश्रय ले तथा बद्ध गिना जाय । जीव और ईश्वरमें इस प्रकारकी विषमता कैसे संभव हो सकती है ? और जीवकी अपेक्षा ईश्वरकी शक्ति विशेष मानें तो भी विरोध आता है । जो ईश्वरको शुद्ध चैतन्य-स्वरूप माना जाय तो शुद्ध चैतन्य-स्वरूप मुक्त जीवमें और ईश्वरमें भेद न होना चाहिए; और ईश्वरके द्वारा कर्म-फल देने आदि-रूप कार्य भी न होना चाहिए; अथवा मुक्त जीवसे भी ऐसे कार्य होने चाहिए । और यदि ईश्वरको अशुद्ध
चैतन्य-स्वरूप माना जाय तो उसकी संसारी जीवोंके जैसी स्थिति ठहरेगी, फिर उसमें सर्वज्ञत्व आदि गुण नहीं हो सकते । कदाचित् यह कहो कि हम उसे शरीर-धारी सर्वज्ञकी भाँति 'शरीरधारी सर्वज्ञ ईश्वर' मान लेंगे, तब भी तुम्हें यह बतलाना पड़ेगा कि सर्व-कर्मफल-दातृत्व-रूप विशेष खभाव ईश्वरमें किस गुणके कारण मानना चाहिए ? और शरीर तो नष्ट हो जाता है तब कहना पड़ेगा कि ईश्वरका भी शरीर नष्ट होता है ।
और यदि उसे मुक्त स्वीकार करोगे तो उसमें 'कर्म-फल-दातृत्व' नहीं बन सकता । इत्यादि नाना प्रकारके दोष ईश्वरको कर्म-फलका दाता माननेसे आते हैं और ईश्वरको इसी तरहका माननेसे उसका ईश्वरत्व ही नष्ट करनेके जैसा प्रसंग आ उपस्थित होता है।
ते ते भोग्य विशेषनां, स्थानक द्रव्य खभाव । गहन वात छे शिष्य आ, कहीं संक्षेपे साव ॥८६
तत्तभोग्यविशेषाणां स्थानं द्रव्यस्वभावता । वार्तेयं गहना शिष्य ! संक्षेपे सर्वथोदिता ॥८६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org