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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
उपदेश किस लिए किया? वेदान्त शास्त्र कहते हैं कि जब तक आत्मज्ञान न हो तब तक दुःखोंका आत्यन्तिक क्षय नहीं हो सकता, सो यदि ऐसा न होता तो उन्हें दुःखोंके क्षयका उपदेश किस लिए करना चाहिए ? और इसी प्रकार कर्मोंका कर्तृत्व आत्मामें न हो तो भोक्तृत्व भी कहाँसे होगा ? इस प्रकार विचार करनेसे यह सिद्ध होता है कि आत्मा कर्मोंका कर्त्ता है । यहाँ पर यह प्रश्न और हो सकता है और तुमने भी इस प्रश्नको किया है । वह यह कि जो आत्माको कर्मोंका कती माना जाय तो वह उसका धर्म - स्वभाव - ठहरता है; और जो जिसका धर्म होता है वह कभी नष्ट नहीं हो सकता अर्थात् वह उससे सर्वथा भिन्न हो नहीं सकता । जिस प्रकार कि अभिकी उष्णता या प्रकाश अग्निसे भिन्न नहीं है । इसी प्रकार जो कर्म-कर्तृत्व आत्माका धर्म हो तो वह फिर नाश नहीं हो सकता । परन्तु यह कहना तब ठीक हो सकता है जब कि प्रमाणके एकांशको ही स्वीकार करके इस विषयका विचार किया जाये । परन्तु जो बुद्धिमान होते हैं वे ऐसा नहीं करते कि प्रमाणके एकांश स्वीकार करके उसके दूसरे अंशको छोड़ दें ।
और इस प्रश्नका उत्तर, कि जीव कर्मोंका कर्त्ता नहीं है, अथवा हो तो वह प्रतीत नहीं होता, जीवको कर्मोंका कर्त्ता बतलाते हुए अच्छी तरह दे दिया गया है । तथा यह जो कहा गया कि जीवको कर्मोंका कर्त्ता मानने से वह कर्तृत्व-धर्म फिर उससे दूर नहीं हो सकेगा, सो यह कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं; क्योंकि जो जो वस्तुयें ग्रहण की जाती हैं वे छोड़ी भी जा सकती हैं । ग्रहण की गई वस्तुकी ग्रहण करनेवाले के साथ एकता नहीं हो सकती । इस लिए जीव जिन द्रव्य कर्मों को ग्रहण करता
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