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अर्थात्--अस्स यानी अश्विनी और साई–स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं। यहाँ विशिष्ट अवस्था की राशि के समान विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को लग्न माना है।
इस ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजितादि नक्षत्र गणनाओं की समालोचना की गयी है। कल्प, सूत्र, निरुक्त और व्याकरण में ज्योतिषचर्चा
___ आश्वलायन सूत्र, पारस्कर सूत्र, हिरण्यकेशी सूत्र, आपस्तम्ब सूत्र आदि सूत्र ग्रन्थों में फुटकल रूप से ज्योतिषचर्चा मिलती है। आश्वलायन सूत्र में "श्रावण्यां पौर्णमास्यां श्रावणकर्मा," "सीमन्तोन्नयनं....यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यात्" इत्यादि अनेक वाक्य विभिन्न कार्यों के विभिन्न मुहूर्तों के लिए आये हैं। पारस्कर सूत्र में विवाह के नक्षत्रों का वर्णन करते हुए लिखा है-"त्रिषु त्रिषु उत्तरादिषु स्वाती मृगशिरसि रोहिण्याम् ।" अर्थात् उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती और अश्विनी विवाह नक्षत्र बताये गये हैं । इन सूत्र ग्रन्थों में विभिन्न कार्यों के विधेय नक्षत्रों का वर्णन मिलता है। बोधायन सूत्र में"मोनमेषयोर्मेषवृषमयोर्वसन्तः” इस प्रकार लिखा मिलता है। इससे सिद्ध है कि सूत्र ग्रन्थों के समय में राशियों का प्रचार भारत में हो गया था।
निरुक्त में दिन-रात्रि, शुक्ल-कृष्ण पक्ष, उत्तरायण-दक्षिणायन का कई स्थानों पर चामत्कारिक वर्णन आया है। इसमें युगपद्धति की पूर्व मध्यकालीन ज्योतिष ग्रन्थों के समान सुन्दर मीमांसा मिलती है।
पाणिनीय व्याकरण में संवत्सर, हायन, चैत्रादि मास, दिवस विभागात्मक मुहूर्त शब्द, पुष्य, श्रवण, विशाखा आदि नक्षत्रों की व्युत्पत्ति की गयी है। "विभाषा ग्रहः" ३।१।१४३ में ग्रह शब्द से नवग्रहों का अनुमान करना भी असंगत नहीं कहा जा सकेगा। स्मृति एवं महाभारत की ज्योतिषचर्चा
___ मनुस्मृति में सैद्धान्तिक ग्रन्थों के समान युग और कल्पना का वर्णन मिलता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में नवग्रहों का स्पष्ट कथन है
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो वृहस्पतिः । शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चैते ग्रहाः स्मृताः ॥
-आचाराध्याय इस श्लोक पर से सातों वारों का अनुमान भी सहज में किया जा सकता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में क्रान्तिवृत्त के १२ भागों का भी कथन है, जिससे मेषादि १२ राशियों की सिद्धि हो जाती है। श्राद्धकाल अध्याय में वृद्धियोग का भी कथन है, इससे
प्रथमाध्याय
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