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लोकोऽसि स्वर्गोऽसि । अनन्तस्य पारोऽसि । अक्षितोस्यक्षय्योसि । तपसः प्रतिष्ठा त्वयीदमन्तः । विश्वं यक्षं विश्वं भूतं विश्व सुभूतं । विश्वस्य भर्ता विश्वस्य जनयिता । तं त्वोपदधे कामदुधमक्षितं । प्रजापतिस्त्वासादयतु । तया देवतयांगिरस्व ध्रुवासीद् । तपोऽसि लोके श्रितं । तेजसः प्रतिष्ठा...तेजोऽसि तपसि श्रितं । समुद्रस्य प्रतिष्ठा....। समुद्रोऽसि तेजसि श्रितः। अपां प्रतिष्ठा । अपः स्थ समुद्रे श्रिताः । पृथिव्याः प्रतिष्ठा युष्मासु। पृथिव्यस्यप्सु श्रिता। अग्नेः प्रतिष्ठा । अग्निरसि पृथिव्याश्रितः। अन्तरिक्षस्थ प्रतिष्ठा। अन्तरिक्षमस्यग्नौ श्रितं । वायोः प्रतिष्ठा । वायुरस्यन्तरिक्षे श्रितः। दिवः प्रतिष्ठा । द्यौरसि वायौ श्रिता। आदित्यस्य प्रतिष्ठा । आदित्योऽसि दिवि श्रित:। चन्द्रमसः प्रतिष्ठा । चन्द्रमा अस्यादित्ये श्रितः । नक्षत्राणां प्रतिष्ठा । नक्षत्राणि स्थ चन्द्रमसि श्रितानि । संवत्सरस्य प्रतिष्ठा युष्मासु । संवत्सरोऽसि मक्षत्रेषु श्रितः। ऋतूनां प्रतिष्ठा । ऋतवः स्थ संवत्सरे श्रिताः। मासानां प्रतिष्ठा युष्मासु । मासाः स्थर्तुषु श्रिताः । अर्धमासानां प्रतिष्ठा युष्मासु । अर्धमासाः स्थ मासेसु श्रिताः। अहोरात्रयोः प्रतिष्ठा युष्मासु । अहोरात्रे स्थोर्धमासेषु श्रिते । भूतस्य प्रतिष्ठे मव्यस्य प्रतिष्ठे । पौर्णमास्यष्टकामावास्या ॥...॥ -ते. ब्रा. ३. ११. " अर्थात्-लोक अनन्त और अपार है, इसका कभी विनाश नहीं होता। पृथ्वी के ऊपर अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष के ऊपर द्यौ है । इस द्यौ लोक में सूर्य भ्रमण करता है। अन्तरिक्ष में केवल वायु गमन करता है। सूर्य के ऊपर चन्द्रमा स्थित है, इसका गमन नक्षत्रों के मध्य में होता है। मेघ, वायु, विद्युत् ये तीनों भी अन्तरिक्ष और द्यौ लोक के मध्य में है। सूर्य, चद्र एवं नक्षत्रों का स्थान भी द्यौ लोक है।
__ ऋग्वेद के प्रथम मण्डलान्तर्गत १६४वें सूक्त में सूर्य और लोक का वर्णन स्पष्ट आया है। मालूम होता है कि उस समय ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक की कल्पना ने ज्योतिष में स्थान प्राप्त कर लिया था।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण से विचार करने पर ज्ञात होगा कि वर्तमान ग्रहकक्षा से भिन्न उस समय की ग्रहकक्षा थी। आजकल चन्द्रकक्षा को नीचे और सूर्यकक्षा को ऊपर मानते हैं। पर उदयकाल में चन्द्रमा की कक्षा को सूर्य की कक्षा से ऊपर माना जाता था। इस कक्षाक्रम का समर्थन समवायांग और प्रश्न-व्याकरणांग से भी होता है । इन ग्रन्थों में तारा, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु और शनि की कक्षाओं को क्रमशः ऊपर-ऊपर बताया गया है।
सामान्यतया भारतीय आचार्यों की यह प्रारम्भिक कल्पना स्वाभाविक मालूम पड़ती है; क्योंकि जब सूर्य दिखलाई पड़ता है उस समय नक्षत्र हमारे दृष्टिगोचर नहीं होते अतः सूर्य का गमन नक्षत्रकक्षा के अन्दर नहीं होता है, यह सहज कल्पना दोषयुक्त नहीं कही जा सकती है। लेकिन चन्द्रमा के सम्बन्ध में सूर्य के गमनवाला नियम काम नहीं करता है, इसलिए चन्द्रमा के गमन के समय उसके पास के नक्षत्र दिखलाई पड़ते हैं। इसका प्रधान कारण यही ज्ञात होता है कि चन्द्रमा नक्षत्रों के मध्य से गमन
प्रथमाध्याय
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