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________________ वातरोगी, भ्रमणशील, वाचाल, कृशदेही, प्रवासी, भीर, धर्मात्मा, साहसी, भ्रातृहीन एवं शत्रुनाशक; दसवें भाव में हो तो नेता, न्यायी, विद्वान्, ज्योतिषी, राजयोगी, अधिकारी, चतुर, महत्त्वाकांक्षी, निरुद्योगो, परिश्रमी, भाग्यवान्, उदरविकारी, राजमान्य एवं धनवान्; ग्यारहवें भाव में हो तो दीर्घायु, क्रोधी, चंचल, शिल्पी, सुखी, योगाभ्यासी, नीतिवान्, परिश्रमी, व्यवसायी, विद्वान्, पुत्रहीन, कन्याप्रज्ञ, रोगहीन एवं बलवान् और बारहवें भाव में हो तो अपस्मार, उन्माद का रोगी, व्यर्थ व्यय करनेवाला, व्यसनी, दुष्ट, कटुभाषी, अविश्वासी, मातुलकष्टदायक एवं आलसी होता है । राहु-लग्न में राहु हो तो जातक दुष्ट, मस्तकरोगी, स्वार्थी, राजद्वेषी, नीचकर्मरत, मनस्वी, दुर्बल, कामी एवं अल्पसन्ततियुक्त; द्वितीय भाव में हो तो परदेशगामी, अल्प सन्तति, कुटुम्बहीन, कठोरभाषी, अल्प धनवान्, संग्रहशील एवं मात्सर्ययुक्त; तृतीय भाव में हो तो योगाभ्यासी, पराक्रमशून्य, दृढ़विवेकी, अरिष्टनाशक, प्रवासी, बलवान्, विद्वान् एवं व्यवसायी; चतुर्थ भाव में राहु हो तो असन्तोषी, दुखी, मातृक्लेशयुक्त, क्रूर, कपटी, उदरव्याधियुक्त, मिथ्याचारी एवं अल्पभाषी; पांचवें भाव में राहु हो तो उदररोगी, मतिमन्द, धनहीन, कुलधननाशक, भाग्यवान्, कार्यकर्ता एवं शास्त्रप्रिय; छठे भाव में हो तो विधर्मियों द्वारा लाभ, नीरोगी, शत्रुहन्ता, कमरदर्द पीड़ित, अरिष्टनिवारक, पराक्रमी एवं बड़े-बड़े कार्य करनेवाला; सातवें भाव में हो तो स्त्रीनाशक, व्यापार से हानिदायक, भ्रमणशील, वातरोगजनक, दुष्कर्मी, चतुर, लोभी एवं दुराचारी; आठवें भाव में हो तो पुष्टदेही, गुप्तरोगी, क्रोधी, व्यर्थभाषी, मूर्ख, उदररोगो एवं कामी; नौवें भाव में हो तो प्रवासी, वातरोगी, व्यर्थ परिश्रमी, तीर्थाटनशील, भाग्योदय से रहित, धर्मात्मा एवं दुष्टबुद्धि; दसवें भाव में हो तो आलसी, वाचाल, अनियमित कार्यकर्ता, मितव्ययी, सन्ततिक्लेशी तथा चन्द्रमा से युक्त राहु के होने पर राजयोगकारक; ग्यारहवें भाव में हो तो मन्दमति, लाभहीन, परिश्रमी, अल्पसन्ततियुक्त, अरिष्टनाशक, व्यवसाययुक्त, कदाचित् लाभदायक एवं कार्य सफल करनेवाला और बारहवें भाव में हो तो विवेकहीत, मतिमन्द, मूर्ख, परिश्रमी, सेवक, व्ययी, चिन्ताशील एवं कामी होता है। - केतु-लग्न में केतु हो तो चंचल, भीरु, दुराचारी, मूर्ख तथा वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी, परिश्रमी; द्वितीय में हो तो राजभीरु, विरोधी एवं मुखरोगी; तृतीय स्थान में हो तो चंचल, वातरोगी, व्यर्थवादी, भूत-प्रेतभक्त; चतुर्थ में हो तो चंचल, वाचाल, कार्यहीन, निरुत्साही एवं निरुपयोगी; पांचवें स्थान में हो तो कुबुद्धि, कुचाली, वातरोगी; छठे भाव में हो तो वात-विकारी, झगड़ालू, भूत-प्रेतजनित रोगों से रोगी, मितव्ययी, सुखी एवं अरिष्टनिवारक; सातवें भाव में हो तो मतिमन्द, मूर्ख, शत्रुभीरु एव सुखहीन; आठवें भाव में हो तो दुर्बुद्धि, तेजहीन, दुष्टजनसेवी, स्त्रीद्वेषी एवं चालाक; नवें भाव में हो तो सुखाभिलाषी, व्यर्थ परिश्रमी, अपयशी; दसवें भाव में हो तो पितृद्वेषी, दुर्भागी, मूर्ख, व्यर्थ परिश्रमशील एवं अभिमानी; ग्यारहवें भाव में हो तृतीयाध्याय ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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