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________________ कारी, उदार, शास्त्रज्ञ, सम्पादक, सदाचारी, लोभी, यात्री एवं दुष्ट चित्तवाला होता है । गुरु के सम्बन्ध में इतना विशेष है कि २।५।७।११ भाव में अकेला गुरु हानिकारक होता है अर्थात् उन भावों को नष्ट करता है। शुक्र-लग्न में शुक्र हो तो जातक दीर्घायु, सुन्दरदेही, ऐश्वर्यवान्, सुखी, मधुरभाषी, प्रवासी, विद्वान्, भोगी, विलासी, कामी एवं राजप्रिय; द्वितीय भाव में हो तो धनवान्, मिष्टान्न भोजी, यशस्वी, लोकप्रिय, जौहरी, सुखी, समयज्ञ, कुटुम्बयुक्त, कवि, दीर्घजीवी, साहसी एवं भाग्यवान्; तृतीय भाव में हो. तो सुखी, धनी, कृपण, आलसी, चित्रकार, पराक्रमी, विद्वान्, भाग्यवान् एवं पर्यटनशील; चतुर्थ भाव में हो तो सुन्दर, बलवान्, परोपकारी, आस्तिक, सुखी, व्यवहारदक्ष, विलासी, भाग्यवान्, पुत्रवान् एवं दीर्घायु, पाँचवें भाव में हो तो सुखी, भोगो, सद्गुणी, न्यायवान्, आस्तिक, दानी, उदार, विद्वान्, प्रतिभाशाली, वक्ता, कवि, पुत्रवान्, लाभयुक्त, व्यवसायी एवं शत्रुनाशक; छठे भाव में हो तो स्त्रीसुखहीन, बहुमित्रवान्, दुराचारी, मूत्ररोगी, वैभवहीन, दुखी, गुप्तरोगी, स्त्रीप्रिय, शत्रुनाशक एवं मितव्ययी; सातवें भाव में हो तो स्त्री से सुखी, उदार, लोकप्रिय, धनिक, चिन्तित, विवाह के बाद भाग्योदयी, साधुप्रेमी, कामी, अल्पव्यभिचारी, चंचल, विलासी, गानप्रिय एवं भाग्यवान्; आठवें भाव में हो तो विदेशवासी, निर्दयी, रोगी, क्रोधी, ज्योतिषी, मनस्वी, दुखी, गुप्तरोगी, पर्यटनशील एवं परस्त्रीरत; नौवें भाव में हो तो आस्तिक, गुणी, गृहसुखी, प्रेमी, दयालु, पवित्र तीर्थयात्राओं का कर्ता, राजप्रिय एवं धर्मात्मा; दसवें भाव में हो तो विलासी, ऐश्वर्यवान्, न्यायवान्, ज्योतिषी, विजयी, लोभी, धार्मिक, गानप्रिय, भाग्यवान्, गुणवान् एवं दयालु; ग्यारहवें भाव में शुक्र हो तो विलासी, वाहनसुखी, स्थिरलक्ष्मीवान्, लोकप्रिय, परोपकारी, जौहरी, धनवान्, गुणज्ञ, कामी एवं पुत्रवान् और बारहवें भाव में शुक्र हो तो न्यायशील, आलसी, पतित, धातुविकारी, स्थूल, परस्त्रीरत, बहुभोजी, धनवान्, मितव्ययी एवं शत्रुनाशक होता है । शनि-लग्न में शनि मकर तथा तुला का हो तो धनाढ्य, सुखी, अन्य राशियों का हो तो दरिद्री; द्वितीय भाव में हो तो मुखरोगी, साधु-द्वेषी, कटुभाषी और कुम्भ या तुला का शनि हो तो धनी, कुटुम्ब तथा भ्रातृवियोगी, लाभवान्; तृतीय भाव में हो तो नीरोगी, योगी, विद्वान्, शीघ्र कार्यकर्ता, मल्ल, सभाचतुर, विवेकी, शत्रुहन्ता, भाग्यवान् एवं चंचल; चतुर्थ में हो तो बलहीन, अपयशी, कृशदेही, शीघ्रकोपी, कपटी, धूर्त, भाग्यवान्, वातपित्तयुक्त एवं उदासीन; पाँचवें भाव में हो तो वातरोगी, भ्रमणशील, विद्वान्, उदासीन, सन्तानयुक्त, आलसी एवं चंचल, छठे भाव में हो तो शत्रुहन्ता, भोगी, कवि, योगी, कण्ठरोगी, श्वासरोगी, जाति विरोधी, वणी, बलवान् एवं आचारहीन; सातवें भाव में हो तो क्रोधी, धन-सुखहीन, भ्रमणशील, नीच कर्मरत, आलसी, स्त्रीभक्त, विलासी एवं कामी; आठवें भाव में हो तो कपटी, वाचाल, कुष्टरोगी, डरपोक, धूर्त, गुप्तरोगी, विद्वान्, स्थूलशरीरी एवं उदार प्रकृति; नवें भाव में हो तो रोगी, २१४ भारतीय ज्योतिष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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