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जो अनेक बातें सिखायीं, उनमें सबसे अधिक महत्त्व अंकविद्या का है । संसार-भर में गणित, ज्योतिष, विज्ञान आदि की आज जो उन्नति पायी जाती है, उसका मूल कारण वर्तमान अंक क्रम है, जिसमें से ९ तक के अंक और शून्य इन १० चिह्नों से अंकविद्या का सारा काम चल रहा है । यह क्रम भारतवासियों ने ही निकाला और उसे सारे संसार ने अपनाया ।" "
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि प्राचीनतम काल में भारतीय ऋषि खगोल और ज्योतिषशास्त्र से परिचित थे । कुछ लोग भारतीय ज्योतिष में ग्रीक शब्दों का सम्मिश्रण होने के कारण तथा प्राचीन भारतीय ज्योतिष में मेष, वृष आदि १२ राशियों एवं मंगल, बुध, गुरु इत्यादि ग्रहों के नामों का स्पष्ट उल्लेख न मिलने के कारण उसे ग्रीस से आया हुआ बतलाते हैं, परन्तु विचार करने पर वास्तविक बात ऐसी प्रतीत नहीं होगी । क्योंकि उन लोगों ने आगत शब्दों के प्रमाण में होरा (लग्न और राशि - भाग), हिबुक ( जन्म कुण्डली का चतुर्थ भाव ), आपोक्लीम, द्रेष्काण (राशि का तृतीयांश ), कण्टक (चतुर्थ भाव ), पणफर, अनफा, सुनफा, दुरधरा ( योगविशेष), तुंग ( उच्चस्थान ), मुसल्लह (नवमांश ), मुन्था ( जन्मलग्नस्थित किसी भी अभीष्ट वर्ष की राशि ), इन्दुवार, इत्थशाल, ईसराफ, यमना, मणऊ (योगविशेष) को उपस्थित किया ।
प्राचीन भारत में ग्रीस देश से अनेक विद्यार्थी विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए आते थे और वर्षों रहकर भारतीय आचार्यों से भिन्न-भिन्न शास्त्रों का अध्ययन करते थे, जिससे उनके अत्यधिक सम्पर्क के कारण कुछ शब्द ई. पू. ३री शती में, कुछ ई. ६ठी शती में और कुछ १५वीं - १६वीं शती में ज्योतिष में मिल गये । भारत के कई ज्योतिर्विद् ईसवी सन् की ४थी और ५वीं शताब्दी में ग्रीस गये थे, इससे ५वीं शती के अन्त और ६ठी के प्रारम्भ में अनेक ग्रीक शब्द भारतीय ज्योतिष में आ गये ।
डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर ने लिखा है कि "८वीं शती में अरबी विद्वानों ने भारत से ज्योतिषविद्या सीखी और भारतीय ज्योतिष सिद्धान्तों का 'सिन्द हिन्द' नाम से अरबी में अनुवाद किया ।"" अरबी भाषा में लिखी गयी 'आइन-उल-अम्बाफितल काली अत्वा' नामक पुस्तक में लिखा है कि "भारतीय विद्वानों ने अरबी के अन्तर्गत बग़दाद की राजसभा में जाकर ज्योतिष, चिकित्सा आदि शास्त्रों की शिक्षा दी थी । कर्क नाम के एक विद्वान् शक संवत् ६९४ में बादशाह अलमसूर के दरबार में ज्योतिष और चिकित्सा के ज्ञानदान के निमित्त गये थे ।"
दूसरी युक्ति जो राशि और ग्रहों के स्पष्ट नामोल्लेख न मिलने के रूप में दी गयी है, निस्सार है । क्योंकि जब प्राचीन साहित्य में सौर-जगत् के सूक्ष्म अवयव नक्षत्रों का ज़िक्र मिलता है तब स्थूल अवयव राशि का ज्ञान कैसे न रहा होगा ?
१. मध्यकालीन भारतीय संस्कृति : पृ. १०८ ।
२. हण्टर इण्डियन - गजेटियर इण्डिया : पृ. २१८ ।
३.
ज्योतिषरत्नाकर : प्रथम भाग — भूमिका ।
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भारतीय ज्योतिष
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