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मल्लारि-इनके पिता का नाम दिवाकरनन्दन और बड़े भाइयों का नाम कृष्णचन्द्र और विष्णुचन्द्र था। इन्होंने अपने पिता से ही ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन किया था। इनकी ग्रहलाघव के ऊपर उपपत्ति सहित एक सुन्दर टीका है। इस टीका द्वारा इनकी गोल और गणित-सम्बन्धी विद्वत्ता का पता सहज में लग जाता है। वक्र केन्द्रांश निकालने के लिए की गयी समीकरण की कल्पना इनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । बापूदेव शास्त्री ने सिद्धान्तशिरोमणि के स्पष्टाधिकार की टिप्पणी में वक्र केन्द्रांश निकालने के लिए मल्लारि की कल्पना का प्रयोग किया है।
नारायण--यह टापर ग्रामनिवासी अनन्तनन्दन के पुत्र थे । इनका समय ईसवी सन् १५७१ माना गया है। इन्होंने शक संवत् १४९३ में विवाहादि अनेक मुहूर्तों से युक्त मुहूर्तमार्तण्ड नामक मुहूर्त ग्रन्थ बनाया था। ग्रन्थ के देखने से इनकी ज्योतिषसम्बन्धी निपुणता का पता सहज में लग जाता है। इस ग्रन्थ में अनेक विशेषताएँ हैं, इसकी रचना शार्दूलविक्रीडित छन्दों में हुई है।
इस नाम के एक दूसरे विद्वान् ईसवी सन् १५८८ में हो गये हैं। इन्होंने केशवपद्धति के ऊपर टीका लिखी है तथा एक बीजगणित भी बनाया है। इसमें अवर्गरूप प्रकृति का रूप क्षेपीय कनिष्ठ-ज्येष्ठ द्वारा आसन्न मूल निकाला गया है, जिससे ग्रन्थकर्ता की गणित-विषयक योग्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। कारण सूत्र इस प्रकार है
मूलं ग्राह्यं यस्य च तद्पक्षेपजे परे तन्त्र ।
ज्येष्ठं हस्वपदेनोदरेमवेन्मूलमासन्नम् ॥ रंगनाथ-इनका जन्म काशी में ईसवी सन् १५७५ में हुआ था। इनके पिता का नाम वल्लाल और माता का गोजि था। इन्होंने सूर्यसिद्धान्त की गूढार्थ-प्रकाशिका नामक टीका लिखी है। इस टीका से इनकी ज्योतिष-विषयक विद्वत्ता का पता लग जाता है। इन्होंने उक्त टीका में अनेक नवीन बातें लिखी हैं। ___ इन प्रधान ज्योतिविदों के अतिरिक्त इस युग में शतानन्द, केशवार्क, कालिदास, महादेव, गंगाधर, भक्तिलाभ, हेमतिलक, लक्ष्मीदास, ज्ञानराज, अनन्तदैवज्ञ, दुर्लभराज, हरिभद्रसूरि, विष्णुदैवज्ञ, सूर्यदैवज्ञ, जगदेव, कृष्णदैवज्ञ, रघुनाथशर्मा, गोविन्ददैवज्ञ, विश्वनाथ, नृसिंह, विट्ठलदीक्षित, शिवदैवज्ञ, समन्तभद्र, बलभद्र मिश्र और सोमदैवज्ञ भी हुए हैं। इन्होंने स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ लिखकर तथा पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की टीकाएँ लिखकर ज्योतिषशास्त्र को समृद्धिशाली बनाया है। गोविन्ददैवज्ञ ने मुहूर्तचिन्तामणि की पीयूषधारा टीका लिखकर इस ग्रन्थ को सदा के लिए अमर बना दिया है। यह केवल टीका ही नहीं है बल्कि मुहूर्तसम्बन्धी साहित्य का एक संग्रह है। इसी प्रकार नृसिंहदैवज्ञ ने सूर्यसिद्धान्त और सिद्धान्तशिरोमणि की सौरभाष्य और वासनावार्तिक नाम की टोकाएँ रची। इन टीकाओं से तद्विषयक एक नया साहित्य ही खड़ा हो गया। उत्तरमध्यकाल के अन्तिम के ज्योतिषियों में
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