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________________ रसज्ञान की न्यूनता, नेत्रों से लगातार जलप्रवाह एवं अपनी जिह्वा को न देख सकना आदि को परिगणित किया है। द्वितीय श्रेणी में सूर्य और चन्द्रमा का अनेक रूपों में दर्शन, प्रज्वलित दीपक को शीतल अनुभव करना, चन्द्रमा को त्रिभंगी रूप में देखना, चन्द्रलांछन का दर्शन न होना इत्यादि को लिया है। तृतीय में निजच्छाया, परच्छाया तथा छायापुरुष का वर्णन है और आगे जाकर छाया का अंगविहीन दर्शन आदि विषयों पर तथा छाया का सछिद्र और टूटे-फूटे रूप में दर्शन आदि पर अनेकों मत दिये हैं । अनन्तर ग्रन्थकर्ता ने स्वप्नों का कथन किया है जिन्हें उसने देवेन्द्र कथित तथा सहज इन दो रूपों में विभाजित किया है। अरिष्टों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति करते हुए प्रश्नारिष्ट के आठ भेद-अंगुलिप्रश्न, अलक्तप्रश्न, गोरोचनाप्रश्न, प्रश्नाक्षरप्रश्नआलिगित, दग्ध, ज्वलित और शान्त, एवं शकुनप्रश्न बताये हैं। प्रश्नाक्षरारिष्ट का अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि मन्त्रोच्चारण के अनन्तर पृच्छक से प्रश्न करा के प्रश्नवाक्य के अक्षरों को दूना और मात्राओं को चौगुना कर योगफल में सात से भाग देना चाहिए । यदि शेष कुछ न रहे तो रोगी की मृत्यु और शेष रहने से रोगी का चंगा होना फल जानना चाहिए । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ में आचार्य ने बाह्य और आन्तरिक शकुनों के द्वारा आनेवाली मृत्यु का निश्चय किया है। ग्रन्थ का विषय रुचिकर है। उदयप्रभदेव-इनके गुरु का नाम विजयसेन सूरि था। इनका समय ईसवी सन् १२२० बताया जाता है। इन्होंने ज्योतिष-विषयक आरम्भसिद्धि अपर नाम व्यवहारचर्या नामक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ पर वि. सं. १५१४ में रत्नेश्वर सूरि के शिष्य हेमहंस गणि ने एक विस्तृत टीका लिखी है। इस टीका में इन्होंने मुहूर्तसम्बन्धी साहित्य का अच्छा संकलन किया है। लेखक ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थोक्त अध्यायों का संक्षिप्त नामकरण निम्न प्रकार दिया है दैवज्ञदीपकलिका व्यवहारचर्यामारम्भसिद्धमुदयप्रभदेव एनाम् । शास्तिक्रमेण तिथिवारमयोगराशिगोचर्यकार्यगमवास्तुविलग्नमेमिः ॥ हेमहंस गणि ने व्यवहारचर्या नाम की सार्थकता दिखलाते हुए लिखा है व्यवहारः शिष्टजनसमाचारः शुमतिथिवारमादिषु शुभकार्यकरणादिरूपस्तस्य चर्या । अर्थात्-इस ग्रन्थ में प्रत्येक कार्य के शुभाशुभ मुहूर्तों का वर्णन है। मुहूर्त अंग की दृष्टि से ग्रन्थ मुहूर्तचिन्तामणि के समान उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। उपर्युक्त ११ अध्यायों में सभी प्रकार के मुहूर्तों का वर्णन किया है। ग्रन्थ को आद्योपान्त देखने पर लेखक की ग्रहगणित-विषयक योग्यता भी ज्ञात हो जाती है । हेमहंस गणि ने टीका के मध्य में प्राकृत की यह गणित-विषयक गाथाएँ उद्धृत की हैं, जिनसे पता लगता है कि इनके समक्ष कोई प्राकृत का ग्रहगणित सम्बन्धी ग्रन्थ था । इस ग्रन्थ में अनेक विशेषताएँ हैं। प्रथमाध्याय ९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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