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धनफल निकाला है। ज्योतिषपटल में ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के स्थान, गति, स्थिति और संख्या आदि का प्रतिपादन किया है । यद्यपि ज्योतिषपटल सम्पूर्ण उपलब्ध नहीं है, पर जितना अंश उपलब्ध है उससे ज्ञात होता है कि गणितसार का उपयोग इस ग्रन्थ के ग्रहगणित में किया गया है।
भट्टोत्पल-यह प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं। जिस प्रकार कालिदास के लिए मल्लिनाथ सिद्धहस्त टीकाकार माने जाते हैं, उसी प्रकार वराहमिहिर के लिए भट्टोत्पल एक अद्वितीय प्रतिभाशाली टीकाकार हैं। यदि सच कहा जाये तो मानना पड़ेगा कि इनकी टीका ने ही वराहमिहिर को इतनी ख्याति प्रदान की है। वराहमिहिर के ग्रन्थों के अतिरिक्त वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशाकृत षट्पंचाशिका और ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक नामक ग्रन्थों पर इन्होंने विद्वत्तापूर्ण समन्वयात्मक टीकाएँ लिखी हैं। टीकाओं के अतिरिक्त प्रश्नज्ञान नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी इनका रचा बताया जाता है । इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा है
भट्टोत्पलेन शिज्यानुकम्पयावलोक्य सर्वशास्त्राणि ।
आर्यासप्तशत्यैवं प्रश्नज्ञानं समासतो रचितम् ॥ इससे स्पष्ट है कि सात सौ आर्या श्लोकों में प्रश्नज्ञान नामक ग्रन्थ की रचना की है। भट्टोत्पल ने अपनी टीका में अपने से पहले के सभी आचार्यों के वचनों को उद्धृत कर एक अच्छा तद्विषयक समन्वयात्मक संकलन किया है। इसके आधार पर से प्राचीन ज्योतिषशास्त्र का महत्त्वपूर्ण इतिहास तैयार किया जा सकता है। इनका समय श. ८८८ है।
चन्द्रसेन-इनका रचा गया केवलज्ञानहोरा नामक महत्त्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ कल्याणवर्मा के पीछे का रचा गया प्रतीत होता है, इसके प्रकरण सारावली से मिलते-जुलते हैं, पर दक्षिण में रचना होने के कारण कर्णाटक प्रदेश के ज्योतिष का पूर्ण प्रभाव है। इन्होंने ग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने के लिए बीच-बीच में कन्नड़ भाषा का भी आश्रय लिया है। यह ग्रन्थ अनुमानतः तीन-चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुआ है । ग्रन्थ के आरम्भ में कहा गया है
होरा नाम महाविद्या वक्तव्यं च भवद्धितम् ।
ज्योतिनिकसारं भूषणं बुधपोषणम् ॥ इन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाण में की है
आगमैः सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः ।
केवलीसदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे । इस ग्रन्थ में हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण, वृक्षप्रकरण, कार्पास-गुल्म-वल्कल-तृण-रोम-चर्म-पट-प्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्यप्रकरण, निर्वाहप्रकरण, अपत्यप्रकरण, लाभालाभप्रकरण, स्वप्रकरण, स्वप्नप्रकरण, वास्तुविद्याप्रकरण, भोजनप्रकरण, देहलोहदीक्षाप्रकरण, अंजन-विद्याप्रकरण एवं विषविद्याप्रकरण आदि
प्रथमाध्याय
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