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पाश्चात्त्य विद्वानों का कथन है कि वराहमिहिराचार्य ने भारत के ज्योतिष को केवल ग्रह-नक्षत्र ज्ञान तक ही मर्यादित न रखा, वरन् मानव जीवन के साथ उसकी विभिन्न पहलुओं द्वारा व्यापकता बतलायी तथा जीवन के सभी आलोच्य विषयों की व्याख्याएँ की। सचमुच वराहमिहिराचार्य ने एक खासा साहित्य इसपर तैयार किया है।
__ कल्याणवर्मा-इनका समय ईसवी सन् ५७८ माना जाता है। इन्होंने यवनों के होराशास्त्र का सार संकलित कर सारावली नामक जातक ग्रन्थ की रचना की है। यह सारावली वराहमिहिर के बृहज्जातक से भी बड़ी है, जातकशास्त्र की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भट्टोत्पल ने बृहज्जातक की टीका में सारावली के कई श्लोक उद्धृत किये हैं । कल्याणवर्मा ने स्वयं अपने सम्बन्ध में लिखा हैदेवग्रामपयःप्रपोषणबहाद् ब्रह्माण्डसस्पजरं
कीर्तिः सिंहविलासिनीव सहसा यस्येह मित्त्वा गता । होर व्याघ्रमटेश्वरो रचयति स्पष्टी तु सारावली
श्रीमान् शास्त्रविचारनिर्मलमनाः कल्याणवर्मा कृती ॥ इससे स्पष्ट है कि वराहमिहिर के होराशास्त्र को संक्षिप्त देख यवनहोराशास्त्रों का सार लेकर इन्होंने सारावली की रचना की है। इस ग्रन्थ की श्लोक-संख्या ढाई हज़ार से अधिक बतायी जाती है ।
ब्रह्मगुप्त-यह वेधविद्या में निपुण, प्रतिष्ठित और असाधारण विद्वान् थे । इनका जन्म पंजाब के अन्तर्गत 'भिलनालका' नामक स्थान में ईसवी सन् ५९८ में हुआ था। ३० वर्ष की अवस्था में इन्होंने 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके अतिरिक्त ६७ वर्ष की अवस्था में 'खण्डखाद्यक' नामक एक करण ग्रन्थ भी इन्होंने बनाया था। कहते हैं कि इस ग्रन्थ का यह नाम अर्थात् ईख के रस से बना हुआ मधुर, रखने का कारण यह बताया जाता है कि उस समय में इस देश में बौद्ध और सनातनियों में धार्मिक झगड़ा बराबर चला करता था, इससे इन दोनों में शास्त्रार्थ भी खूब होता था। सनातनियों के खण्डन के लिए बौद्ध और जैन ग्रन्थ लिखा करते थे और इन दोनों के खण्डन के लिए सनातनी। ज्योतिष में भी यह खण्डन-मण्डन की प्रथा प्रचलित थी। किसी बौद्ध पण्डित ने 'लवणमुष्टि' अर्थात् एक मुष्टि नमक नामक ग्रन्थ लिखा था; जिसका तात्पर्य यही था कि सनातनियों पर छिड़कने के लिए एक मुट्ठी-भर नमक । इसी के उत्तर में ब्रह्मगुप्त ने 'खण्ड-खाद्यक' रचा अर्थात् मुट्ठी-भर नमक के बदले इन्होंने लोगों को मधुरता दी।
ब्रह्मगुप्त ज्योतिष के प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने बीजगणित के कई नवीन नियमों का आविष्कार किया, इसी से यह गणित के प्रवर्तक कहे गये हैं। अरबवालों ने बीजगणित ब्रह्मगुप्त से ही लिया है। इनके गणित ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में भी हुआ सुना जाता है। ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त का 'असिन्द हिन्द' और 'खण्डखाद्यक' का 'अलर्कन्द' नाम अरबवालों ने रखा है।
प्रथमाध्याय
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