________________
पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण जीवधारियों को सुख-दुःख की प्राप्ति होती है । इस सुख-दुःखादि को लक्षणों के द्वारा जाना जा सकता है। शरीर में अंग, उपांग और अंगोपांग ये तीन होते हैं, इन तीनों के लक्षण कहे जाते हैं। जिसके द्वारा मनुष्यों के सुख-दुःख अवलोकनमात्र से जाने जायें, उसे लक्षण कहते हैं। जिस मनुष्य के पैर का तलवा लाल, स्निग्ध और मृदुल हो तथा स्वेद और वक्रता से रहित हो तो वह इस पृथ्वी का राजा होता है । पैर में चन्द्रमा, सूर्य, वज्र, चक्र, अंकुश, शंख और छत्र के चिह्न होने पर व्यक्ति राजा होता है। स्निग्ध और गहरी रेखाएँ भी नृपति के पैर के तलवे में होती हैं । शंखादि चिह्न भिन्न अपूर्ण या अस्पष्ट अथवा पूर्ण-स्पष्ट हों तो उत्तरार्द्ध अवस्था में सुख-भोगों की प्राप्ति होती है । खर-गर्दभ, वराह-शूकर, जम्बुक-शृगाल की आकृति के चिह्न हों तो व्यक्ति को कष्ट होता है। समान पदांगुष्ठों के होने पर मनोनुकूल पत्नी की प्राप्ति होती है। अंगुली के समान अँगूठे के होने पर दो पत्नियों की प्राप्ति होती है । यदि मध्यमा अंगुली के समान अँगूठा हो तो कुलवृद्धि होती है। अनामिका के समान अँगूठा के होने पर यमल सन्तान की प्राप्ति एवं कनिष्ठा के समान होने पर पिता की मृत्यु होती है। स्थूल अँगूठा होने पर पथिक–यात्रा करनेवाला होता है । आगे की ओर अंगूठा के झुका रहने पर विरह वेदना का कष्ट होता है। भग्न अँगूठा के होने पर नित्य दुःख की प्राप्ति होती है ।
जिस व्यक्ति की तर्जनी अंगुली दीर्घ होती है, वह व्यक्ति महिलाओं द्वारा सर्वदा तिरस्कृत किया जाता है । वह नाटा होता है, कलहप्रिय होता है और पिता-पुत्र से रहित होता है। जिसकी मध्यमा अंगुली दीर्घ होती है, उसके धन का विनाश होता है और घर से स्त्री का भी विनाश या निर्वास होता है। अनामिका के दीर्घ होने से व्यक्ति विद्वान् होता है तथा कनिष्ठा के दीर्घ होने से नाटा होता है । हाथ की अंगुलियों की परीक्षा का विषय इस ग्रन्थ में अत्यन्त विस्तारपूर्वक दिया है । सामुद्रिक शास्त्र का ग्रन्थ न होने पर भी सामुद्रिक शास्त्र की अनेक महत्त्वपूर्ण बातें आयी हैं।
कुवलयमाला में अंगुली और अंगूठे के विचार के अनन्तर हाथ की हथेली का विचार किया है। हथेली के स्पर्श, रूप, गन्ध एवं लम्बाई-चौड़ाई का विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। वृषण और लिंग के ह्रस्व, दीर्घ एवं विभिन्न आकृतियों का पर्याप्त विचार किया है । वक्षस्थल, जिह्वा, दाँत, ओष्ठ, कान, नाक आदि के रूप-रंग, आकृति, स्पर्श आदि के द्वारा शुभाशुभ फल वर्णित है । अंगज्ञान के सम्बन्ध में लेखक ने इस कथाग्रन्थ में पर्याप्त सामग्री संकलित कर दी है। दीर्घायु का विचार करते हुए लिखा गया है
कण्ठं पिट्ठी लिंग जंघे य हवंति हस्सया एए । पिहुला हस्थ पाया दीहाऊ सुस्थिओ होइ ॥
प्रथमाध्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org