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________________ -का० ८७. १५७५] लोकायतमतम् । ४६१ अथवा सर्वदर्शनसंमतानां स(त)त्वानां परस्पर विरोधमाकर्ण्य । किंकर्तव्यता मूढानां प्राणिनां यत्कर्तव्योपदेशमाह 'अभिधेय" इत्यादि-अभिधेयं सर्वदर्शनसंबन्धी प्रतिपाद्योऽर्थः तस्य यस्तात्प र्थिः सत्यासत्यविभागेन व्यवस्थापितस्तत्त्वार्थः स पर्यालोच्यः। सम्यग्विचारणीयो न पुनर्यथोक्तमात्रो निर्विचारं ग्राह्यः । कैः । सुबुद्धिभिः सुष्ठु शोभना मार्गानुसारिणी पक्षपातरहिता बुद्धिः मतिर्येषां ते सुबुद्धयः, तेनं पुनः कदाग्रहग्रहिलैः । यदुक्तम् ___ "आग्रही बत निनीषति युक्ति यत्र तत्र मतिरस्य निविष्टा ।। पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१॥"[ ] इति । ६५७५. अयमत्र भावार्थ:-सर्वदर्शनानां परस्परं 'मतविरोधमाकर्ण्य मूढस्य प्राणिनः सर्वदर्शनस्पृहयालुतायां निजदर्शनेकपक्षपातितायां वा दुर्लभं स्वर्गापवर्गसाधकत्वम्, अतो मध्यस्थवृत्तितया विमर्शनीयः सत्यासत्यार्थविभागेन तात्त्विकोऽर्थः, विमृश्य च श्रेयस्करः पन्याभ्युपगन्तव्यो यतितव्यं च तत्र कुशलमतिभिः। खूब गहराईके साथ विचार करके उनका सत्यासत्य निर्णय करना चाहिए । यह नहीं कि जिसने कह दिया उसे आंख मूंद कर बिना विचारे ही मान लिया। जो समझदार हैं दुराग्रहसे मुक्त हैं उनका कर्तव्य है कि वे सभी दर्शनोंका मध्यस्थ भावसे अध्ययन और विचार करके उनका सत्यासत्य निर्णय करें। किसी दर्शनकी बातको 'अमुक आचार्यने कहा है। इसीलिए आंख मूंदकर बिना विचार नहीं मानना चाहिए। कहा भी है-"जो दुराग्रही है साम्प्रदायिक ग्रहसे जिसकी बुद्धि विकृत हो रही है वह उसकी बुद्धिने जिस पदार्थको जिस रूपसे ग्रहण कर रखा है वहीं युक्तियोंकी यद्वा तद्वा खींचतान करता है । उसका मूलमन्त्र होता है कि 'जो मेरा है या मैंने जाना है वही अन्तिम सत्य है।' इसलिए वह युक्तियों को खींचतान करके अपने मतको सिद्ध करनेका अनुचित प्रयत्न करता है। परन्तु जो मत पक्षपातसे रहित हैं, मध्यस्थ भावसे · अपनी बुद्धिका समतोलन कर उपयोग करते हैं उन समझदारोंकी बुद्धि तो जिस पदार्थको युक्तियां जिस रूपसे सिद्ध करती हैं उसको उसी रूपसे माननेके लिए सदा प्रस्तुत रहती है। इनका सिद्धान्त होता है कि 'जो सत्य सिद्ध हो वही मेरा है, युक्ति सिद्ध वस्तुको पूर्वग्रहसे सर्वथा मुक्त होकर स्वीकार करने के लिए सदा प्रस्तत रहना चाहिए। तात्पर्य यह कि सभी दर्शनोंके परस्पर विरोधको सनकर मूढ़ प्राणी या तो सभी दर्शनोंको आँख मूंदकर सत्य मान बैठेगा या फिर साम्प्रदायिक भावसे अपने मतका दुराग्रह कर बैठेगा। दोनों ही अवस्थाओंमें स्वर्ग मोक्षका साधन अत्यन्त कठिन है, क्योंकि सभी दर्शनोंकी परस्पर विरोधी क्रियाओंका अनुष्ठान असम्भव होनेके कारण या तो वह क्रियाशून्य होकर निरुद्योगी हो जायेगा या फिर अपने सम्प्रदायकी अपरीक्षित क्रियाओंका आचरण करके मिथ्या चारित्री हो जायेगा। निश्चेष्ट होना तथा मिथ्या आचरण करना दोनों ही लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकते। . ६५७५. इसलिए समझदार व्यक्तियोंका यह आद्यकर्तव्य है कि वे मध्यस्थ भावसे तात्त्विक अर्थका अच्छी तरह विचार करें और सत्यासत्यका निर्णय करके श्रेयस्कर मार्गको चुनें तथा उसके अनुसार आचरण करके अपना और परका कल्याण करें।।।८७|| दिया. १.-तानां परस्प-म. २, क.। २. तैस्कदाग्रह -म.।। ३. तत्र यत्र भ..। ४.-स्परमत म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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