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________________ ४४२ षड्दर्शनसमुच्चये [का०७५: । ५३५सादृश्य मिति । अस्य चानधिगतार्थाधिगन्तृतया प्रामाण्यमुपपन्नं, यतोऽत्र गवयविषयेण प्रत्यक्षेण गवय एव विषयीकृतो न पुनरसंनिहितस्य गोः सादृश्यम् । यदपि तस्य पूर्व गौरिति प्रत्यक्षमभूत, तस्यापि गवयोऽत्यन्तमप्रत्यक्ष एवेति कथं गवि तदपेक्षं तत्सादृश्यज्ञानम् । तदेवं गवयसदृशो गौरिति प्रागप्रतिपत्तेरनधिगतार्थाधिगन्तृपरोक्षे गवि गवयदर्शनात्सादृश्यज्ञानम् ॥७४॥ ६ ५३५. अथार्थापत्तिलक्षणमाह दृष्टार्थानुपपत्त्या तु कस्याप्यर्थस्य कम्पना । क्रियते यद्बलेनासावर्थापत्तिरुदाहृता ॥७॥ ६५३६. व्याख्या-प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणैर्दृष्टः प्रसिद्धो योऽर्थः, तस्यानुपपत्त्याअन्यथासंभवेने तु-पुनः कस्याप्यन्यस्य अदृष्टस्यार्थस्य कल्पना यबलेन यस्य ज्ञानस्य बलेन सामर्थ्येन क्रियते । 'दृष्टाद्यनुपपत्या' इति पाठे तु दृष्टःप्रमाणपञ्चकेन आदिशब्दात् श्रुतः शाब्दप्रमाणेन तस्य दृष्टस्य श्र तस्य चार्थस्यानुपपत्त्या कस्याप्यर्थस्य कल्पना यबलेन क्रियत इति प्राग्वत् । असावदृष्टार्थकल्पनारूपं ज्ञानमेवार्थापत्तिरुदाहृता। अत्रे सूत्रम्-"अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पना" [ शाबरभा. १२१५] इति । अत्र प्रमाणपञ्चकेन दृष्टः शब्देन श्रुतश्चाौँ मिथोवैलक्षण्यज्ञापनार्थ पृथक्कृत्योक्तौ स्तः । शेषं तुल्यम् । इदमुक्तं भवति-प्रत्यक्षादिप्रमाणषटकविज्ञातोऽर्थो येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य कल्पनमापत्तिः। ६५३७. तत्र प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्तिः यथाग्नेः प्रत्यक्षेणोष्णस्पर्शमुपलभ्य दाहकशक्तियोगोऽ सादृश्यविशिष्ट गो या गौविशिष्ट सादृश्य उपमानका प्रमेय-विषय है। यह उपमान अनधिगतअभी तक अज्ञात-पदार्थको जाननेके कारण प्रमाण है; क्योंकि गवयको जाननेवाले प्रत्यक्षने तो मात्र गवयको ही जाना है, वह परोक्ष गौको सदृशताको नहीं जानता। पहले जो गायविषयक प्रत्यक्ष हुआ था उसने तो गवयको स्वप्नमें भी नहीं जाना था। गायविषयक प्रत्यक्षके लिए जब गवय अत्यन्त परोक्ष था, तब उसके द्वारा गवयकी अपेक्षा गौमें सादृश्यज्ञान हों ही नहीं सकता था। इस तरह 'गवयके समान गो है' यह प्रतीति न तो गवय प्रत्यक्षके द्वारा ही पहले हुई है और न गो प्रत्यक्षके द्वारा ही । अतः गवयको देखकर परोक्ष गोमें होनेवाला सादृश्य ज्ञान अगृहीत. ग्राही होनेसे प्रमाण है ||७४|| ६५३५. अब अर्थापत्तिका लक्षण कहते हैंदृष्ट पदार्थको अनुपपत्तिके बलसे किसी अदृष्ट अर्थको कल्पनाको अर्थापत्ति कहते हैं ॥७५॥ $ ५३६. प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंसे प्रसिद्ध अर्थक अविनाभावसे किसी अन्य अदृष्ट-परोक्ष पदार्थकी कल्पना जिस ज्ञानके बलपर की जावे वह अर्थापत्ति है। 'दृष्टाद्यनुपपत्त्या' ऐसा पाठ भी कहीं-कहीं मिलता है। इसका अर्थ है-दृष्टप्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाणोंसे प्रसिद्ध तथा आदि शब्दसे श्रुत-शाब्द प्रमाणसे प्रसिद्ध किसी भी अर्थको अनुपपत्ति-असम्भवता दिखाकर जिस किसी अर्थकी कल्पना जिस ज्ञानसे की जाय उसे अर्थापत्ति कहते हैं। इस पाठमें प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंसे प्रसिद्ध दृष्ट पदार्थ तथा शाब्दप्रमाणसे प्रसिद्ध श्रुतपदार्थको परस्पर विलक्षणता बतायी है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंसे जाना गया पदार्थ जिसके बिना नहीं होता उस अविनाभावी परोक्ष पदार्थकी कल्पना अर्थापत्ति कहलाती है। ६५३७. प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति-स्पार्शन प्रत्यक्षसे उष्णताका अनुभव कर अग्निको १. तथापि तस्य गव-आ.क.। २.-न तु पुनः आ.। न पुनः क.। ३. "तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञानादाहादहनशक्तता।"-मी. इको. अर्थापत्ति. इको.३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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