SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -का०६८.६५१६] मीमांसकमतम्। "देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥" [ आप्तमी. श्लो. १ ] अथ यथानादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिप्रक्रियया विशोध्यमानस्य निर्मलत्वम्, एवमात्मनोऽपि निरन्तरज्ञानाद्यभ्यासेन विगतमलत्वात्सर्वज्ञत्वं कि संभवेदिति मतिः, तदपि न; अभ्यासेन हि शुद्धस्तारतम्यमेव भवेत्, न पुनः परमः प्रकर्षः। न हि नरस्य लङ्घनमभ्यासतस्तारतम्यवदप्युपलभ्यमानं सकललोकविषयमुपलभ्यते । उक्तं - "दशहस्तान्तरं व्योम्नो यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनशतं गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥१॥" ६५१६. अथ मा भून्मानुषस्य सर्वज्ञत्वं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादीनां तु तदस्तु। ते हि देवाः, संभवत्यपि तेष्वतिशयसंपत् । यत्कुमारिल: "अथापि दिव्यदेहत्वाद्ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। कामं भवन्तु सर्वज्ञाः साश्यं मानुषस्य किम् ॥१॥" समाधान-आपकी बुद्धि बाहरी चमत्कारोंसे चमत्कृत हो रही है। मायावी इन्द्रजालिया जादूगर भी अपनी कोर्ति, पूजा आदिके लोभसे इन्द्रजालके द्वारा छत्र-चमर आदि विभूतियोंको प्रकट कर सकते हैं तथा करते भी हैं। वे देवोंके द्वारा अपनी सेवा-टहल भी दिखा सकते हैं। तो क्या इन बाहरी चमत्कारोंसे उन्हें भी सर्वज्ञ मान लिया जाय ? आपके ही आचार्य श्रीसमन्तभद्रने कहा है कि-"देवोंका आना, आकाशमें अधर विहार करना तथा छत्र, चमर आदि विभूतियां तो मायावी जादूगरोंमें भी पायी जाती हैं। अतः मात्र इन विभूतियोंसे आप हम जैसे परीक्षकोंके महान् पूज्य नहीं हो सकते।" शंका-जिस तरह कोई अनादिकालका मलीन भी सोना, सुहागा, तेजाब आदिसे मिट्टीको घरियामें पकानेसे साफ करते-करते सौटंचका निर्मल आबदार सोना हो जाता है उसी तरह सतत ज्ञानाभ्यास तथा योग आदि प्रक्रियाओंसे आत्मा भी धीरे-धीरे कर्ममलसे रहित होकर शुद्ध हो सकती है। ऐसी शुद्ध आत्मा ज्ञानावरणरूप मलके हट जानेसे क्या सर्वज्ञ नहीं बन सकती ? सर्वज्ञताके लिए ज्ञानावरणका नाश ही मुख्य रूपसे अपेक्षित होता है। समाधान-अभ्याससे शुद्धिकी. तरतमता-कमोवेशी तो हो सकती है पर उसका परम प्रकर्ष होना अत्यन्त असम्भव है। अभ्यास करनेसे थोडा-बहत हेर-फेर ही सम्भव है। कोई मनष्य ऊंचा कूदनेका कितना ही अभ्यास क्यों न करे, पर वह कभी भी सारे लोकको नहीं लांघ सकता। यह तो हो सकता है कि उसकी ऊंचा कूदनेकी शक्तिमें तरतमता-कुछ अधिक विकास हो जाय, वह चार हाथकी जगह आठ हाथ कूदने लगे, पर सारे लोकके कूदनेका परम प्रकर्ष कभी भी नहीं हो सकता। कहा भी है-"जो मनुष्य अभ्यास करते-करते दस हाथ ऊंचा उछल जाता है, वह सैकड़ों अभ्यास करनेपर भी सौ योजन ऊंचा नहीं कूद सकता।" ५१६. शंका-अच्छा, यदि साधारण मनुष्योंको अभ्याससे सर्वज्ञता उत्पन्न नहीं हो सकती, तो न सही; पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर आदि तो देव हैं, उनमें तो सर्वज्ञतारूपी अतिशय हो हो सकता है। वे अलौकिक दिव्य पुरुष हैं। कुमारिलने स्वयं ही कहा है कि "यदि दिव्य देहवाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर आदि सर्वज्ञ हो भी जायें तो भी साधारण मनुष्यमें सर्वज्ञता कैसे सिद्ध १. -द्यभासेन भ.१, प. १,२।-द्यवभासेन म.१। २. श्लोकोऽयं कुमारिलोक्तमिति कृत्वा तत्त्वसंग्रह पृ. ८२६ ) उद्धृतः । ३. अथ मानुष्यस्य न सर्वज्ञत्वं म. २॥ ४. श्लोकोऽयं कुमारिलोक्तत्वेन तत्त्वसंग्रह ( का. ३२०८) उद्धतः । प्रमाणमी. पृ. १२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy