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________________ -का० ५७. ६ ४११] जैनमतम् । ३८९ $ ४०९. नापि विशेषणविशेष्यभावो घटामिति, तस्य संयोगाद्यसंभवेऽभावात् तस्य तु प्रागेव निरासात् । ६४१०. नापि साध्यसाधनयोस्तादात्म्यं घटते, साध्यसाधनयोरसिद्धसिद्धयोर्भेदाभ्युपगमेन तादात्म्यायोगात्, तादात्म्ये च साध्यं साधनं चैकतरमेव भवेन्न द्वयं कथंचित्तादात्म्ये तु जैनमतानुप्रवेशः स्यात् । ४११. तदुत्पत्तिस्तु कार्यकारणभावे संभविनी कार्यकारणभावश्चार्थक्रियासिद्धौ सिध्येत् । अर्थक्रिया च नित्यस्य क्रमाक्रमाभ्यां सहकारिषु सत्स्वसत्सु च जनकाजनकस्वभावद्वयानभ्युपगमेन नोपपद्यते । अनित्यस्य तु सतोऽसतो वा सा न घटते सैतः समसमयतिनि व्यापारायोगात् व्यापारे वा स्वस्वकारणकाल एव जातानामुत्तरोत्तरसर्वक्षणानामेकक्षणवर्तित्वप्रसङ्गात्, सकलभावानां मिथः कार्यकारणभावप्रसक्तेश्च, असतश्च सकलशक्तिविकलत्वेन कार्यकारणासंभवात, ६४०९. साध्य और साधनमें विशेषणविशेष्यभाव भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि विशेषणविशेष्यभाव तो उन पदार्थों में होता है जिनमें पहलेसे परस्पर कोई संयोग या समवाय आदि सम्बन्ध रहते हैं। पर जब साध्य और साधनमें संयोगादि सम्बन्धोंका अभाव सिद्ध किया जा चुका है तब उनमें विशेषणविशेष्यभावकी बात बिलकुल अप्रासंगिक है। ४१०. साध्य और साधनमें तादात्म्य सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता; क्योंकि साध्य असिद्ध होता है तथा साधन सिद्ध । इस तरह जब उनमें जमीन-आसमान-जैसा भेद तादात्म्य सम्बन्ध कैसे बन सकता है ? यदि उनमें तादात्म्य माना जायेगा; तो जब तादात्म्य होनेसे से साध्य और साधनमें अभेद हो जायेगा तब या तो साध्य ही बचेगा या फिर साधन ही। तादात्म्य सम्बन्धमें दो नहीं बच सकते । कथंचित्तादात्म्य माननेसे तो जैन मतको स्वीकार करना होगा। ६ ४११. साध्य और साधनमें कार्यकारणभाव होनेपर ही तदुत्पत्ति सम्बन्धकी बात उठ सकती है। कार्य-कारण भाव अर्थ क्रिया करनेवाले पदार्थों में होता है। सर्वथा नित्य तथा अनित्य साध्य-साधनोंमें जब अर्थक्रिया ही नहीं हो सकती तब उनमें कार्यकारणभाव या तदुत्पत्ति सम्बन्धकी चर्चा ही व्यर्थ है। नित्य पदार्थ सदा एक स्वभाववाला होता है, अतः उसमें क्रमसे तथा युगपत् सहकारियोंकी मददसे तथा उनकी मददके बिना, किसी भी तरह कोई भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि हर हालतमें अनेक कार्योंको उत्पन्न करनेके लिए अनेक स्वभावोंकी आवश्यकता है, जिनका कि नित्यमें सर्वथा अभाव है। सर्वथा क्षणिक पदार्थ भी अपने सद्भावमें तथा असद्भावमें अर्थक्रिया नहीं कर सकता। यदि वह अपनी मौजूदगीमें ही अपने कार्यको उत्पन्न करता है; तो पहली बात तो यह है कि-समान समयवालोंमें कार्यकारणभाव नहीं होता। यदि एक साथ रहनेवालोंमें भी कार्यकारणभाव हो जाय; तो समस्त उत्तरोत्तर कार्य पूर्व-पूर्व क्षणमें उत्पन्न हो जायेंगे। नवां क्षण दसवें क्षणको अपनी मौजूदगीमें अर्थात् नवे क्षणमें ही उत्पन्न करता है, इसी तरह आठवां नवेंको अपनी मौजूदगी अर्थात् आठवें क्षणमें, सातवां आठवें को अपनी सातवें क्षणकी सत्तामें, छठा सातवेंको अपने छठे क्षणमें, इस तरह समस्त उत्तरोत्तरक्षण खिसकते-खिसकते प्रथमक्षणमें ही उत्पन्न होंगे और दूसरे क्षणमें नष्ट होकर संसारको शून्य बना देंगे। ऊपर यदि सहभावियोंमें कार्यकारणभाव हो, तो समस्त सहभावी पदार्थों में परस्पर कार्यकारण भाव हो जाना चाहिए। कोई भी कारण असत् होकर तो कार्यको उत्पन्न ही नहीं कर सकता; क्योंकि असत् पदार्थ जब समस्त शक्तियोंसे रहित होता है तो उसमें कार्यको उत्पन्न करने १. द्यभावेऽभावा-म. १, प. १, २ । २. वो भ. १, प. १, २। ३. सतः समवायवति-आ. क.। सतसमयवति प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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