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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १९.६३४तानि प्रत्यक्षादिसर्वप्रमाणानि पूर्व यस्य तत्तत्पूर्वकमिति विग्रहविशेषाश्रयणेन सर्वप्रमाणपूर्वकत्वमप्यनुमानस्य लभ्यते। न च तेषां पूर्वमप्रकृतत्वात्कथं तच्छन्देन परामर्श इति प्रेयम्। यतः साक्षादप्रकृतत्वेऽपि प्रत्यक्षसूत्रे व्यवच्छेद्यत्वेन प्रकृतत्वादिति । अस्यां व्याख्यायां' नाव्याप्त्यादिदोषः कश्चनापि। ३४. ये तु पूर्वशब्दस्यैकस्य लुप्तस्य निर्देशं नाभ्युपगच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षफलेऽनुमानत्वप्रसक्तिः, तत्फलस्य प्रत्यक्षप्रमाणपूर्वकत्वात् । अथाकारकस्याप्रमाणत्वात् कारकत्वं लभ्यते, ततोऽयमर्थः-अव्यभिचारिताव्यपदेश्यव्यवसायात्मिकार्थोपलब्धिजनकमेवाध्यक्षफलं लिङ्गज्ञानमनुमानमिति चेत; उच्यते-एवमपि विशिष्टज्ञानमेवानुमान प्रसज्यते । न च ज्ञानस्यैवानुमानत्वम्, "स्मत्यनमानागमसंशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहाः सखादिप्रत्यक्षमिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि" [ न्यायभा. १३१।१६ ] इति वचनात् सर्वस्य बोधाबोधरूपस्य विशिष्ट फलजनकस्यानुमानत्वादित्यहै । ऐसा द्विवचनान्त तत् शब्दसे विशेष विग्रह करनेसे सूचित होता है कि अनुमान प्रत्यक्षप्रमाणके फलरूप दो प्रत्यक्षज्ञानोंसे उत्पन्न होता है। इसी तरह वे प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाण जिसके पूर्वमें हैं उस तत्पूर्वकज्ञानको अनुमान कहते हैं । ऐसे बहुवचनान्त तत् शब्दसे विग्रह करनेसे यह ज्ञात हो जाता है कि-अनुमानमें प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाण कारण होते हैं। शंका-प्रत्यक्षसे अतिरिक्त अन्य प्रमाणोंका तो पहले प्रकरण नहीं आया है इसलिए बहुवचनान्त तत् शब्दके विग्रहमें उनका ग्रहण कैसे किया जा सकता है ? समाधान-यद्यपि अन्य प्रमाणोंका साक्षात् प्रकरण नहीं है फिर भी प्रत्यक्षके लक्षण सूत्रमें उन अन्य प्रमाणोंकी व्यावृत्ति तो की ही गयी है। अतः व्यवच्छेद्य रूपमें उनका प्रकरण था हो । अतः तत् शब्दसे उनका ग्रहण किया जा सकता है। इस तरह पूर्व शब्दका लुप्त निर्देश मानकर की जानेवाली अनुमानकी यह व्याख्या अव्याप्ति अतिव्याप्ति आदि सभी दोषोंसे रहित है। उसमें कोई दोष नहीं है। ६३४, जो व्याख्याकार एक पूर्वशब्दके लोपका निर्देश नहीं मानते, उनके मतमें प्रत्यक्षके फलमें भी अनुमानत्वका प्रसंग होता है; क्योंकि प्रत्यक्षका फल भी प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वक तो होता ही है, अतः तत्पूर्वक होनेसे वह भी अनुमान रूप हो जायेगा। शंका-प्रमाके प्रति साधकतम कारकको प्रमाण कहते हैं, इसलिए अकारक प्रमाण नहीं बन सकता। अतएव प्रत्यक्ष फलमें, जो कि अकारक है, अनुमानत्वका प्रसंग नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि जो प्रत्यक्षप्रमाणका फलभूत लिंगज्ञान अव्यभिचरित अव्यपदेश्य तथा व्यवसायात्मकरूप अर्थोपलब्धिको उत्पन्न करता है वही अनुमान प्रमाण रूप हो सकता है, अन्य नहीं। समाधान-आपकी इस व्याख्याके अनुसार तो विशिष्ट ज्ञान ही अनुमानरूप हो सकता है। पर मात्र ज्ञान हो तो अनुमानरूप नहीं होता, शास्त्रमें तो अज्ञानात्मक पदार्थोंको भी लिगिज्ञानमें साधकतम होनेसे अनुमानरूप कहा है। न्यायसूत्रमें ही कहा है कि-"स्मृति, न. आगम. संशय. प्रतिभा. स्वप्नज्ञान. ऊह. सुखादिका प्रत्यक्ष तथा इच्छा आदि मनके लिंग हैं।" इसमें स्मृति आदि ज्ञानोंकी तरह इच्छा आदि अज्ञानात्मक पदार्थों को भी लिंगअनुमान माना ही है। सूत्रकारका तो यह अभिप्राय है कि-लिंगिज्ञानरूप विशिष्टफलको उत्पन्न १. -व्याप्तादि -भ. २। २. –णत्वात् साधकतमस्य का.-आ.। -माणत्वात् असाधकतमस्य का-प.१,२। भ. १ प्रती तु 'अकारकस्य' इति पदस्थ टिप्पणीस्थले 'असाधकतमस्य' इति लिखितम्, तेन ज्ञायते यत् 'साधकतमस्थ, असाधकतमस्य' वेति पदं टिप्पणीगतमेव मूले प्रक्षिप्तम् । ३. -जनकमध्यक्ष-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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