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________________ जैन धर्म और दर्शन कर भी विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन किया है। अभी तक ऐसी कहानियाँ लोकोत्तर समझी जाती रहीं। सामान्य जनता यही समझती रही कि कोई दम्पती या स्त्री-पुरुष साथ रहकर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करे तो वह दैवी चमत्कार जैसा है। पर गांधीजी के ब्रह्मचर्यवास ने इस अति कठिन और लोकोत्तर समझने जानेवाली बात को प्रयत्नसाध्य पर इतनी लोकगम्य सावित कर दिया कि आज अनेक दम्पती और स्त्री-पुरुष साथ रहकर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करने का निर्दम्भ प्रयत्न करते हैं। जैन समाज में भी ऐसे अनेक युगल मौजूद हैं। अब उन्हें कोई स्थलिभद्र की कोटि में नहीं गिनता। हालाकि उनका ब्रह्मचर्यपुरुषार्थ वैसा ही है। रात्रि-भोजन त्याग श्रीर उपभोगपरिभोगपरिमाण तथा उपवास, आयंबिल, जैसे ब्रत-नियम नए युग में केवल उपहास की दृष्टि से देखे जाने लगे थे और श्रद्धालु लोग इन व्रतों का आचरण करते हुए भी कोई तेजस्विता प्रकट कर न सकते थे। उन लोगों का व्रत-पालन केवल रूढ़िधर्म-सा दीखता था। मानों उनमें भावप्राण रहा ही न हो । गांधीजी ने इन्हीं व्रतों में ऐसा प्राण फूंका कि आज कोई इनके मखौल का साहस नहीं कर सकता । गांधीजी के उपवास के प्रति दुनिया भर का आदर है उनके रात्रि भोजन त्याग और इने-गिने खाद्य पेय के नियम को आरोग्य और सुभीते की दृष्टि से भी लोग उपादेय समझते हैं। हम इस तरह की अनेक बातें देख सकते हैं जो परम्परा से जैन समाज में चिरकाल से चली आती रहने पर भी तेजोहीन-सी दीखती थी;. पर अब गांधीजी के जीवन ने उन्हें आदरास्पद बना दिया है। जैन परम्परा के एक नहीं अनेक सुसंस्कार जो सुप्त या मूछित पड़े थे उनको गांधीजी की धर्म चेतना ने स्पन्दित किया, गतिशील किया और विकसित भी किया । यही कारण है कि अपेक्षाकृत इस छोटे से समाज ने भी अन्य समाजों की अपेक्षा अधिकसंख्यक सेवाभावी स्त्री-पुरुषों को राष्ट्र के चरणों पर अर्पित किया है । जिसमें बूढ़े-जवान स्त्री-पुरुष, होनहार तरुण-तरुणी और भिक्षु वर्ग का भी समावेश होता है। ____ मानवता के विशाल अर्थ में तो जैन समाज अन्य समाजों से अलग नहीं। फिर भी उसके परम्परागत संस्कार अमुक अंश में इतर समाजों से जुदे भी हैं। ये संस्कार मात्र धर्मकलेवर थे; धर्मचेतना की भूमिका को छोड़ बैठे थे । यों तो गांधीजी ने विश्व भर के समस्त सम्प्रदायों की धर्म चेतना को उत्प्राणित किया है ; पर साम्प्रदायिक दृष्टि से देखें तो जैन समाज को मानना चाहिए कि उनके प्रति गांधीजी की बहुत और अनेकविध देन है। क्योंकि गांधीजी की देन के कारणा ही अब जैन समाज अहिंसा, स्त्री-समानता, वर्ग समानता, निवृत्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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