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जैन धर्म और दर्शन
फल मझ में प्रकट होगा ? जैसे ज्ञानीय क्षयोपशम वस्तुतः एक हैं तथापि मिथ्यादर्शन आदि के सम्बन्ध से उसके सम्यक् विपर्यास आदि फल विविध होते हैं, वैसे ही वेद एक रहने पर भी और उसका सामान्य कार्यप्रदेश एकरूप होने पर भी अन्य काषायिक बलों से और अन्य संसर्ग से उस वेद के विपरीत लक्षण भी हो सकते हैं । पुरुष वेद के उदयवाला पुरुषलिङ्गी भी स्त्रीत्व योग्य अभिलाषा करे तो उसे स्त्रीवेद का लक्षण नहीं परन्तु पुरुषवेद का विपरीत लक्षण मात्र कहना चाहिए। सफेद को पीला देखने मात्र से नेत्र का क्षयोपशम बदल नहीं जाता । वस्तुतः किसी एक ही वेद में नानाविध अभिलाषा की जननशक्ति मानना चाहिए। चाहे सामान्य नियतरूप उसके अभिलाषा को लोक अमुक ही क्यों न माने । वीर्याधायकशक्ति, विर्यग्रहण शक्ति ये ही क्रम से पुंवेद स्त्रीवेद हैं जो द्रव्याकार से नियत हैं। बकरा दूध देता है तो भी उसे स्त्रीवेद का उदय माना नहीं जा सकता, नियत लक्षण का आगन्तुक कारणवश विपर्यास मात्र है। जैसे सामान्यतः स्त्री को डाढ़ी मूंछ नहीं होते पर किसी को खास होते हैं। यह तो लम्बा हो गया । सारांश इतना ही है कि मुझको वेदसाम्य विचारसंगत जान पड़ता है। पुनश्च
प्रोप्रेशन के द्वारा एक दृश्य द्रव्यलिङ्ग का अन्य द्रव्यलिङ्ग में परिवर्तन आजकल बहुत देखे सुने जाते हैं। इसे विचारकोटि में लेना होगा। नपुंसक शायद तीसरा स्वतन्त्र वेद ही नहीं। जहाँ अमुक नियत लक्षण नहीं देखे वहाँ नपुंसक स्वतन्त्र वेद मान लिया पर ऐसा क्यों न माना जाय कि वहाँ वेद स्त्री पुरुष में से कोई एक ही है, पर लक्षण विपरीत हो रहे हैं। द्रव्य आकार भी पुरुष या स्त्री का विविध तारतम्य युक्त होता ही है ।
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