SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 888
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३८ जैन धर्म और दर्शन मैं आपको लिखता हूँ और आपके बारे में कुछ लिखू तो कोई शायद चाटु वाक्य समझे; पर मैं तो कभी चाटुकार नहीं और बदप्रकृति भी नहीं। इसलिए जैसा समझता हूँ लिख देता हूँ। जैनेतर विद्वानों में तो कर्मशास्त्र विषयक गहरे ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं रखी जा सकती; पर जैन और उनमें भी प्रोफेसर में ऐसे गहरे ज्ञान को ढूँढना निराश होना है जितना आपके लेखों में व्यक्त होता है। निःसंदेह आपने कर्मतत्त्व का आकण्ठ पान ही नहीं मनन भी किया जान पड़ता है। अन्यथा पं० फूलचंदजी के शास्त्रीय और सोपपत्निक लेखों का जवाब देना और सो भी अत्यन्त गहराई और पृथक्करण के साथ संभव नहीं। स्थिति ऐसी जान पड़ती है कि कर्मशास्त्र विषयक जितना पाण्डित्य पण्डित में हो उतना ही विशद पाण्डित्य एक प्रोफेसर के लेख व्यक्त करते हैं । दोनों की विचार सरणियाँ और दलीलें देखता हूँ तो यह निश्चयपूर्वक अन्तिमरूप से कहना तो अभी कठिन है कि कौन एक विशेष ग्राह्य है ? खास करके जब यह चर्चा एक या दूसरे रूप से साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ जाती है तब मौन ही अच्छा जान पड़ता है। तो भी तटस्थभाव से देखने पर मुझे अपने विचार में परिवर्तन करना पड़ा है जो मैंने कर्म ग्रन्थ के एक परिशिष्ट में लिखे हैं । मुझको जान पड़ता है कि आपको विचार सरणी वस्तुगामिनी है चाहे जितने शाब्दिक प्रमाण विरोधी क्यों न हों। मैं किसी शास्त्रवाक्य का वैसा कायल नहीं जैसा वस्तुतत्त्व का। हजारों के द्वारा सर्वथा प्रमाण भूत माने जाने वाले वाक्यों और शास्त्रों को मैं क्षणभर में छोड़ सकता हूँ यदि उनसे मेरी बुद्धि और तर्क को संतोष न हो । पर आपने तो तर्क और बुद्धि स्वातन्त्र्य के अलावा शास्त्रीय प्रमाण भी दिये हैं जो बहुत महत्त्व के हैं। इस दृष्टि से मेरे पर आपकी विचारसरणी का असर ही मुख्य पड़ा है। ____ जो मैंने अल्प स्वल्प कर्मशास्त्र विषयक चिंतन मनन किया है, जो मुझ में दूसरी सहायक अल्प स्वल्प दार्शनिक शक्तियाँ हैं, उन सबको यदि मैं एकाग्र करूँ और उसमें अपना असाम्प्रदायिक संस्कार मिला कर आप दोनों की प्रत्येक दलील की गहरी छानवीन करूँ तो संभव है मैं पूरा न्याय करके एकतर निर्णय बाँध सकूँ । पर संभव हो तब भी अब इस ओर मेरी रुचि नहीं है। एक तो यह विषय इतना अधिक सम्प्रदायगत हो गया है कि उसे कोई जैनपक्ष तटस्थभाव से कभी नहीं देखेगा । दूसरे यह विषय जीवनस्पर्शी भी नहीं। न तो किसी पुरुष या स्त्री का मोक्ष होना है और न वैसा मोक्ष इष्ट भी है। हम जिस निवृत्तिप्रधान जैन परम्परा को सर्वाङ्गीण और सदा के लिए अभ्रान्त समझते हैं उस परम्परा के मूल में एक या दूसरे कारण से दूसरी परम्पराओं की तरह त्रुटियाँ भ्रान्तियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy