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जैन धर्म और दर्शन 'नेति' शब्द कहा है वैसे ही जैनदर्शन में 'सरा तत्थ निवत्तंते तक्का तत्थ न विजई' [ आचाराङ्ग ५ ६ ] इत्यादि शब्द से कहा है। यह अनिर्वचनीयत्व का कथन परम निश्चय नय से या परम शुद्ध द्रव्याथिक नय से समझना चाहिए।
और हमने जो जीव का चेतना या अमूर्तत्व लक्षण कहा है सो निश्चय दृष्टि से या शुद्ध पर्यायार्थिक नय से।
(१५) प्र० -- कुछ तो जीव का स्वरूप ध्यान में प्राया, अब यह कहिए कि वह किन तत्त्वों का बना है ?
उ० -- वह स्वयं अनादि स्वतंत्र तत्त्व है, अन्य तत्त्वों से नहीं बना है।
(१६) प्र०-सुनने व पढ़ने में आता है कि जीव एक रासायनिक वस्तु है, अर्थात् भौतिक मिश्रणों का परिणाम है, वह कोई स्वयं सिद्ध वस्तु नहीं है, वह उत्पन्न होता है और नष्ट भी । इसमें क्या सत्य है ?
उ.--जो सूक्ष्म विचार नहीं करते, जिनका मन विशुद्ध नहीं होता और जो भ्रान्त हैं, वे ऐसा कहते हैं । पर उनका ऐसा कथन भ्रान्तिमूलक है।
(१७) प्र०-भ्रान्तिमूलक क्यों ?
उ.---इसलिए कि ज्ञान, सुख, दुःख, हर्ष, शोक, आदि वृत्तियाँ, जो मन से संबन्ध रखती हैं; वे स्थूल या सूक्ष्म भौतिक वस्तुओं के आलम्बन से होती हैं,
'अतद्व्यावृत्तितो भिन्नं, सिद्धान्ताः कथयन्ति तम् । वस्तुतस्तु न निर्वाच्यं, तस्य रूपं कथंचन ॥' द्वि०, १६ ॥
-श्री यशोविजय-उपाध्याय-कृत परमज्योतिः पञ्चविंशतिका । 'अप्राप्यैव निवर्तन्ते, वचो धीभिः सहैव तु । निर्गुणत्वात्क्रिभावाद्विशेषाणामभावतः ॥'
-श्रीशङ्कराचार्यकृत-उपदेशसाहस्री नान्यदन्यत्प्रकरण श्लोक ३१ । अर्थात् - शुद्ध जीव निर्गुण, अक्रिय और अविशेष होने से न बुद्धिग्राह्य है और न वचन-प्रतिपाद्य है।
१ स एष नेति नेत्यात्माऽग्राह्यो न हि गृह्यतेऽशीयों न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्यभयं वै जनक प्रासोसीति होवाच याज्ञवल्क्यः ।'
-बृहदारण्यक, अध्याय ४, ब्राह्मण २, सूत्र ४ । २ देखो-चार्वाक दर्शन [ सर्वदर्शनसंग्रह पृ० १] तथा अाधुनिक भौतिकवादी 'हेगल आदि विद्वानों के विचार प्रो० ध्रुव-रचित आपणो धर्म पृष्ठ ३२५ से प्रागे।
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