________________
મૂ૪
जैन धर्म और दर्शन उसको व्यवहार नय की अपेक्षा से तथा अपूर्ण व अस्थायी समझना चाहिए । सारांश यह है कि पहला लक्षण निश्चय-दृष्टि के अनुसार है, अतएव तीनों काल में घटनेवाला है और दूसरा लक्षण व्यवहार-दृष्टि के अनुसार है, अतएव तीनों काल में नहीं घटनेवाला' है। अर्थात् संसार दशा में पाया जानेवाला और मोक्ष दशा में नहीं पाया जाने वाला है।
(१२) प्र०-उक्त दो दृष्टि से दो लक्षण जैसे जैनदर्शन में किये गए हैं, क्या वैसे जैनेतर-दर्शनों में भी हैं ?
उ०-हाँ, २साङ्ख्य, योग, वेदान्त श्रादि दर्शनों में आत्मा को चेतनरूप या सच्चिदानन्दरूप कहा है सो निश्चय नय५ की अपेक्षा से, और न्याय,
१ 'अथास्य' जीवस्य सहजविजम्भितानन्तशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्व लक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवत्तपुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति ।' -प्रवचनसार, अमृतचन्द्र-कृत टीका, गाथा ५३ ।
सारांश-जीवत्व निश्चय और व्यवहार इस तरह दो प्रकार का है। निश्चय जीवत्व अनन्त-ज्ञान-शक्तिस्वरूप होने से त्रिकाल-स्थायी है और व्यवहार-जीवत्व पौद्गलिक-प्राणसंसर्ग रूप होने से संसारावस्था तक ही रहने वाला है।
२ 'पुरुषस्तु पुष्करपलाशवनिर्लेपः किन्तु चेतनः।' -मुक्तावलि पृ० ३६ । अर्थात्-श्रात्मा कमलपत्र के समान निर्लेप किन्तु चेतन है। ३ तस्माच सत्त्वात्परिणामिनोऽत्यन्तविधर्मा विशुद्धोऽन्यश्चितिमात्ररूपः पुरुषः'
पातञ्जल सूत्र, प.द ३, सूत्र ३५ भाष्य । अर्थात्-पुरुष-आत्मा-चिन्मात्ररूप है और परिणामी सत्त्व से अत्यन्त विलक्षण तथा विशुद्ध है।
४ "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म"-बृहदारण्यक ३।।२८ अर्थात्-ब्रह्म-आत्मा-आनन्द तथा ज्ञानरूप है। ६ “निश्चयमिह भूतार्थ, व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।"
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक ५ अर्थात्-तात्त्विक दृष्टि को निश्चय-दृष्टि और उपचार-दृष्टि को व्यवहार दृष्टि कहते हैं। ५ "इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति ।"
-न्यायदर्शन २१।१० अर्थात्-१ इच्छा, २ द्वेष, ३ प्रयत्न, ४ सुख, ५ दुःख और ज्ञान, ये आत्मा के लक्षण हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org