________________
जैन धर्म और दर्शन भी सत्य भाषण के द्वारा अन्याय का सामना करने की तेजस्विता है उसे काम में नं लाकर कुण्ठित बना देना और पूर्ण आध्यात्मिकता के विकास के भ्रम में पड़ना है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य की दो बाजुएँ हैं जिनसे ब्रह्मचर्य पूर्ण होता है। मैथुन विरमण यह शक्तिसंग्राहक निवृत्त की बाजू है। पर उसके द्वारा संगृहीत शक्ति
और तेज का विधायक उपयोग करना यही प्रवृत्ति की बाजू है। जो मैथुनविरत व्यक्ति अपनी संचित वीर्य शक्ति का अधिकारानुरूप लौकिक लोकोत्तर भलाई में उपयोग नहीं करता है वह अन्त में अपनी उस संचित वीर्य-शक्ति के द्वारा ही या तो तामसवृत्ति बन जाता है या अन्य अकृत्य की और झुक जाता है । यही कारण है कि मैथुनविरत ऐसे लाखों बावा संन्यासी अब भी मिलते हैं जो परोपजीवी क्रोधमूत्ति और विविध बहमों के घर है।
ऐतिहासिक दृष्टि
अब हम ऐतिहासिक दृष्टि से निवृत्ति और प्रवृत्ति के बारे में जैन परम्परा का झुकाव क्या रहा है सो देखें । हम पहिले कह चुके हैं कि जैन कुल में मांस मद्य आदि व्यसन त्याग, निरर्थक पापकर्म से विरति जैसे निषेधात्मक सुसंस्कार और अनुकम्पा मूलक भूतहित करने की वृत्ति जैसे भावात्मक सुसंस्कार विरासती हैं। अब देखना होगा कि ऐसे संस्कारों का निर्माण कैसे शुरू हुआ, उनकी पुष्टि कैसे-कैसे होती गई और उनके द्वारा इतिहास काल में क्या-क्या घटनाएँ घटी।
जैन परम्परा के आदि प्रवर्तक माने जानेवाले ऋषभदेव के समय जितने अन्धकार युग को हम छोड़ दें तो भी हमारे सामने नेमिनाथ का उदाहरण स्पष्ट है, जिसे विश्वसनीय मानने में कोई आपत्ति नहीं। नेमिनाथ देवकीपुत्र कृष्ण के चचेरे भाई और यदुवंश के तेजस्वी तरुण थे। उन्होंने ठीक लम के मौके पर मांस के निमित्त एकत्र किए गये सैकड़ों पशुपक्षियों को लग्न में असहयोग के द्वारा जो अभयदान दिलाने का महान् साहस किया, उसका प्रभाव सामाजिक समारम्भ में प्रचलित चिरकालीन मांस भोजन की प्रथा पर ऐसा पड़ा कि उस प्रथा की जड हिल-सी गई । एक तरफ से ऐसी प्रथा शिथिल होने से मांस-भोजन त्याग का संस्कार पड़ा और दूसरी तरफ से पशु-पक्षियों को मारने से बचाने की विधायक प्रवृत्ति भी धम्य गिनी जाने लगी । जैन परम्परा के आगे के इतिहास में हम जो अनेक अहिंसापोषक और प्राणिरक्षक प्रयत्न देखते हैं उनके मूल में नेमिनाथ की त्याग-घटना का संस्कार काम कर रहा है।
पार्श्वनाथ के जीवन में एक प्रसङ्ग ऐसा है जो ऊपर से साधारण लगता है पर निवृत्ति-प्रवृत्ति के विचार से वह असाधारण है। पार्श्वनाथ ने देखा कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org